शनिवार, 5 अगस्त 2017

प्रमुख हिंदी निबंधकार का सामान्य परिचय

01 . प्रतापनारायण मिश्र

प्रतापनारायण मिश्र (सितंबर1856 - जुलाई1894) भारतेन्दु मण्डल के प्रमुख लेखककवि और पत्रकार थे। वह भारतेंदु निर्मित एवं प्रेरित हिंदी लेखकों की सेना के महारथीउनके आदर्शो के अनुगामी और आधुनिक हिंदी भाषा तथा साहित्य के निर्माणक्रम में उनके सहयोगी थे। भारतेंदु पर उनकी अनन्य श्रद्धा थीवह अपने को उनका शिष्य कहते तथा देवता की भाँति उनका स्मरण करते थे। भारतेंदु जैसी रचनाशैलीविषयवस्तु और भाषागत विशेषताओं के कारण मिश्र जी "प्रतिभारतेंदु" अथवा "द्वितीयचंद्र" कहे जाने लगे थे।

अनुक्रम


जीवनी

मिश्र जी उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के अंतर्गत बैजे गाँव निवासीकात्यायन गोत्रीयकान्यकुब्ज ब्राह्मण पं॰ संकठा प्रसाद मिश्र के पुत्र थे। बड़े होने पर वह पिता के साथ कानपुर में रहने लगे और अक्षरारंभ के पश्चात् उनसे ही ज्योतिष पढ़ने लगे। किंतु उधर रुचि न होने से पिता ने उन्हें अँगरेजी मदरसे में भरती करा दिया। तब से कई स्कूलों का चक्कर लगाने पर भी वह पिता की लालसा के विपरीत पढ़ाई लिखाई से विरत ही रहे और पिता की मृत्यु के पश्चात् 18-19 वर्ष की अवस्था में उन्होंने स्कूली शिक्षा से अपना पिंड छुड़ा लिया।
इस प्रकार मिश्र जी की शिक्षा अधूरी ही रह गई। किंतु उन्होंने प्रतिभा और स्वाध्याय के बल से अपनी योग्यता पर्याप्त बढ़ा ली थी। वह हिंदीउर्दू और बँगला तो अच्छी जानते ही थेफारसीअँगरेजी और संस्कृत में भी उनकी अच्छी गति थी।
मिश्र जी छात्रावस्था से ही "कविवचनसुधा" के गद्य-पद्य-मय लेखों का नियमित पाठ करते थे जिससे हिंदी के प्रति उनका अनुराग उत्पन्न हुआ। लावनौ गायकों की टोली में आशु रचना करने तथा ललित जी की रामलीला में अभिनय करते हुए उनसे काव्यरचना की शिक्षा ग्रहण करने से वह स्वयं मौलिक रचना का अभ्यास करने लगे। इसी बीच वह भारतेंदु के संपर्क में आए। उनका आशीर्वाद तथा प्रोत्साहन पाकर वह हिंदी गद्य तथा पद्य रचना करने लगे। 1882 के आसपास "प्रेमपुष्पावली" प्रकाशित हुआ और भारतेंदु जी ने उसकी प्रशंसा की तो उनका उत्साह बहुत बढ़ गया।
15 मार्च 1883 कोठीक होली के दिनअपने कई मित्रों के सहयोग से मिश्र जी ने "ब्राह्मण" नामक मासिक पत्र निकाला। यह अपने रूप रंग में ही नहींविषय और भाषाशैली की दृष्टि से भी भारतेंदु युग का विलक्षण पत्र था। सजीवतासादगी बाँकपन और फक्कड़पन के कारण भारतेंदुकालीन साहित्यकारों में जो स्थान मिश्र जी का थावही तत्कालीन हिंदी पत्रकारिता में इस पत्र का था किंतु यह कभी नियत समय पर नहीं निकलता था। दो-तीन बार तो इसके बंद होने तक की नौबत आ गई थी। इसका कारण मिश्र जी का व्याधिमंदिर शरीर ओर अर्थाभाव था। किंतु रामदीन सिंह आदि की सहायता से यह येन-केन प्रकारेण संपादक के जीवनकाल तक निकलता रहा। उनकी मृत्यु के बाद भी रामदीन सिंह के संपादकत्व में कई वर्षो तक निकलापरंतु पहले जैसा आकर्षण वे उसमें न ला सके।
1889 में मिश्र जी 25 रू. मासिक पर "हिंदोस्थान" के सहायक संपादक होकर कालाकाँकर आए। उन दिनों पं॰ मदनमोहन मालवीय उसके संपादक थे। यहाँ बालमुकुंद गुप्त ने मिर जी से हिंदी सीखी1 मालवीय जी के हटने पर मिश्र जी अपनी स्वच्छंद प्रवृत्ति के कारण वहाँ न टिक सके। कालाकाँकर से लौटने के बाद वह प्राय: रुग्ण रहने लगे। फिर भी समाजिकराजनीतिकधार्मिक कार्यो में पूर्ववत् रुचि लेते और "ब्राह्मण" के लिये लेख आदि प्रस्तुत करते रहे। 1891 में उन्होंने कानपुर में "रसिक समाज" की स्थापना की। कांग्रेस के कार्यक्रमों के अतिरिक्त भारतधर्ममंडलधर्मसभागोरक्षिणी सभा और अन्य सभा समितियों के सक्रिय कार्यकर्ता और सहायक बने रहे। कानपुर की कई नाट्य सभाओं और गोरक्षिणी समितियों की स्थापना उन्हीं के प्रयत्नों से हुई थी।
मिश्र जी जितने परिहासप्रिय और जिंदादिल व्यक्ति थे उतने ही अनियमितअनियंत्रितलापरवाह और काहिल थे। रोग के कारण उनका शरीर युवावस्था में ही जर्जर हो गया था। तो भी स्वास्थ्यरक्षा के नियमों का वह सदा उल्लंघन करते रहे। इससे उनका स्वास्थ्य दिनों दिन गिरता गया। 1892 के अंत में वह गंभीर रूप से बीमार पड़े और लगातार डेढ़ वर्षो तक बीमार ही रहे। अंत में 38 वर्ष की अवस्था में 6 जुलाई 1894 को दस बजे रात में भारतेंदुमंडल के इस नक्षत्र का अवसान हो गया।
हिन्दी गद्य साहित्य के सुप्रसिद्ध साहित्यकार प्रतापनारायण मिश्र का जन्म १८५६ ई० में उत्तर प्रदेश के बैज (उन्नाव) में हुआ। वे भारतेन्दु युग के प्रमुख साहित्यकार थे। उनके पिता सँकठा प्रसाद एक प्रसिद्ध ज्योतिषी थे और अपने पुत्र को भी ज्योतिषी बनाना चाहते थेकिंतु मिश्र जी को ज्योतिष की शिक्षा रुचिकर नहीं लगीपिता ने अंग्रेजी पढ़ने के लिए स्कूल भेजा किंतु वहाँ भी उनका मन नहीं रमा। लाचार होकर उनके पिता जी ने उनकी शिक्षा का प्रबंध घर पर ही किया। धीरे-धीरे उन्होंने हिंदी संस्कृत के अतिरिक्त उर्दूफारसीबंगला आदि भाषाओं की भी योग्यता प्राप्त कर ली थी। मिश्र जी को लावनियों के प्रति बड़ा लगाव था। लावनी वालों की संगीत से उन्हें कविता करने का शौक लगा। बाद में वे निबंध भी लिखने लगे और साहित्य सेवा में पूरी तरह जुट गए। मिश्र जी ने 'ब्राह्मणनामक मासिक पत्र निकाला और उसका संपादन किया। मिश्र जी बड़े मनमौजी जीव थे। वे आधुनिक सभ्यता और शिष्टता की कम परवाह करते थे। कभी लावनी वालों में सम्मिलित हो जाते थे तो कभी मेले-तमाशों में बंद इक्के पर बैठे जाते दिखाई देते थे। सादा जीवन उनके जीवन का महत्वपूर्ण सिद्धांत था।
इनकी मृत्यु १८९४ ई० में हुई।

रचनाएँ

प्रतापनारायण मिश्र भारतेंदु के विचारों और आदर्शों के महान प्रचारक और व्याख्याता थे। वह प्रेम को परमधर्म मानते थे। हिंदीहिंदूहिदुस्तान उनका प्रसिद्ध नारा था। समाजसुधार को दृष्टि में रखकर उन्होंने सैकड़ों लेख लिखे हैं। बालकृष्ण भट्ट की तरह वह आधुनिक हिंदी निबंधों को परंपरा को पुष्ट कर हिंदी साहित्य के सभी अंगों की पूर्णता के लिये रचनारत रहे। एक सफल व्यंग्यकार और हास्यपूर्ण गद्य-पद्य-रचनाकार के रूप में हिंदी साहित्य में उनका विशिष्ट स्थान है। मिश्र जी की मुख्य कृतियाँ निम्नांकित हैं :
·         (क) नाटक: गोसकटकलिकौतुककलिप्रभावहठी हम्मीरजुआरी खुआरी। सांगीत शाकुंतल (अनुवाद)।
·         (ख) मौलिक गद्य कृतियाँ : चरिताष्टकपंचामृतसुचाल शिक्षाबोधोदयशैव सर्वस्व।
·         (ग) अनूदित गद्य कृतियाँ: नीतिरत्नावलीकथामालासेनवंश का इतिहाससूबे बंगाल का भूगोलवर्णपरिचयशिशुविज्ञानराजसिंहइदिराराधारानीयुगलांगुलीय।
·         (घ) कविता : प्रेमपुष्पावलीमन की लहरब्रैडला स्वागतदंगल खंडकानपुर महात्म्यश्रृंगारविलासलोकोक्तिशतकदीवो बरहमन (उर्दू)।
प्रताप पीयूषनिबन्ध नवनीतकलि कौतुकहठी हमीरगौ संकटजुआरी खुआरीमन की लहरप्रताप लहरीकाव्य काननगो संकटकलि-प्रवाहआदि मिश्र जी के नाटक हैं। कलिकौतुकजुआरीबुआरी उनके रूपक हैं। संगीत शकुंतला लावनी के ढंग पर गाने योग्य खड़ी बोली में पद्य-बद्ध नाटक है। निबंध नवीनतम मैं उनके निबंधों का संग्रह हैं और काव्य-कानन में आलोचनाएँ हैं।

वर्ण्य-विषय

मिश्र जी के निबंधों में विषय की पर्याप्त विविधता है। देव-प्रेमसमाज-सुधार एवं साधारण मनोरंजन आदि मिश्र जी के निबंधों के मुख्य विषय थे। उन्होंने 'ब्राह्मणमासिक पत्र में हर प्रकार के विषय पर निबंध लिखे। जैसे - घूरे का लता विनैकनातन का डौल बाँधेसमझदार की मौत हैबात मनोयोगबृद्धभौं आदि।
मिश्र जी हिंदी हिंदूहिंदुस्तान के कट्टर समर्थक थेअतः उनकी रचनाओं में इनके प्रति विशेष मोह प्रकट हुआ।

भाषा

खड़ी बोली के रूप में प्रचलित जनभाषा का प्रयोग मिश्र जी ने अपने साहित्य में किया। प्रचलित मुहावरोंकहावतों तथा विदेशी शब्दों का प्रयोग इनकी रचनाओं में हुआ है। भाषा की दृष्टि से मिश्र जी ने भारतेंदु की अनुसरण किया और जन साधारण की भाषा को अपनाया। भारतेंदु जी के समान ही मिश्र जी भाषा की कृतिमता से दूर हैं। वह स्वाभाविक हैं। पंडिताऊपन और पूर्वीपन अधिक है। उसमें ग्रामीण शब्दों का प्रयोग स्वच्छंदता पूर्वक हुआ। संस्कृत अरबीफारसीउर्दूअंग्रेज़ीआदि के प्रचलित शब्दों को भी ग्रहण किया गया है। भाषा विषय के अनुकूल है। गंभीर विषयों पर लिखते समय और गंभीर हो गई है। कहावतों और मुहावरों के प्रयोग में मिश्र जी बड़े खुशल थे। मुहावरों का जितना सुंदर प्रयोग उन्होंने किया है वैसा बहुत कम लेखकों ने किया है। कहीं कहीं तो उन्होंने मुहावरों की झड़ी-सी लगा दी है।

शैली

मिश्र जी की शैली में वर्णनात्मकविचारात्मक तथा हास्य विनोद शैलियों का सफल प्रयोग किया गया है। इनकी शैली को दो प्रमुख प्रकारों में बाँटा जा सकता है।
·         विचारात्मक शैली- साहित्यिक और विचारात्मक निबंधों में मिश्र जी ने इस शैली को अपनाया है। कहीं-कहीं इस शैली में हास्य और व्यंग्य का पुट मिलता है।
इस शैली की भाषा संयत और गंभीर है। 'मनोयोगशीर्षक निबंध का एक अंश देखिए-
इसी से लोगों ने कहा है कि मन शरीर रूपी नगर का राजा है। और स्वभाव उसका चंचल है। यदि स्वच्छ रहे तो बहुधा कुत्सित ही मार्ग में धावमान रहता है।
व्यंग्यात्मक शैली   इस शैली में मिश्र जी ने अपने हास्य और व्यंग्य पूर्ण निबंध लिखे हैं। यह शैली मिश्र जी की प्रतिनिधि शैली है। जो सर्वथा उनके अनुकूल है। वे हास्य और विनोद प्रिय व्यक्ति थे। अतः प्रत्येक विषय का प्रतिपादन हास्य और विनोद पूर्ण ढंग से करते थे। हास्य और विनोद के साथ-साथ इस शैली में व्यंग्य के दर्शन होते हैं। विषय के अनुसार व्यंग्य कहीं-कहीं बड़ा तीखा और मार्मिक हो गया है। इस शैली में भाषा सरलसरस और प्रवाहमयी है। उसमें उर्दूफारसीअंग्रेज़ी और ग्रामीण शब्दों का प्रयोग हुआ है। लोकोक्तियाँ और मुहावरों के कारण यह शैली अधिक प्रभावपूर्ण हो गई है। एक उदाहरण देखिए-
            “दो एक वार धोखा खा के धोखेबाज़ों की हिकमत सीख लो और कुछ अपनी ओर से झपकी-फुंदनी जोड़ कर उसी की जूती उसी का सर कर दिखाओ तो बड़े भारी अनुभव शाली वरचं 'गुरुगुड़ ही रहा और चेला शक्कर हो गया। 'का जीवित उदाहरण कहलाओगे।

समालोचना

मिश्र जी भारतेंदु मंडल के प्रमुख लेखकों में से थे। उन्होंने हिंदी साहित्य की विविध रूपों में सेवा की। वे कवि होने के व्यतिरिक्त उच्चकोटि के मौलिक निबंध लेखक और नाटककार थे। हिंदी गद्य के विकास में मिश्र जी का बड़ा योगदान रहा है। आचार्य शुक्ल जी ने पं॰ बालकृष्ण भट्ट के साथ मिश्र जी को भी महत्व देते हुए अपने हिंदी-साहित्य के इतिहास में लिखा है- 'पं. प्रताप नारायण मिश्र और पं॰ बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी गद्य साहित्य में वही काम किया जो अंग्रेजी गद्य साहित्य में एडीसन और स्टील ने किया

बालकृष्ण भट्ट



            पंडित बाल कृष्ण भट्ट (३ जून १८४४- २० जुलाई १९१४) हिन्दी के सफल पत्रकारनाटककार और निबंधकार थे। उन्हें आज की गद्य प्रधान कविता का जनक माना जा सकता है। हिन्दी गद्य साहित्य के निर्माताओं में भी उनका प्रमुख स्थान है।

अनुक्रम


जीवन परिचय

पंडित बाल कृष्ण भट्ट के पिता का नाम पं॰ वेणी प्रसाद था। स्कूल में दसवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद भट्ट जी ने घर पर ही संस्कृत का अध्ययन किया। संस्कृत के अतिरिक्त उन्हें हिंदीअंग्रेज़ीउर्दूफारसी भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान हो गया। भट्ट जी स्वतंत्र प्रकृति के व्यक्ति थे। उन्होंने व्यापार का कार्य किया तथा वे कुछ समय तक कायस्थ पाठशाला प्रयाग में संस्कृत के अध्यापक भी रहे किन्तु उनका मन किसी में नहीं रमा। भारतेंदु जी से प्रभावित होकर उन्होंने हिंदी-साहित्य सेवा का व्रत ले लिया। भट्ट जी ने हिन्दी प्रदीप नामक मासिक पत्र निकाला। इस पत्र के वे स्वयं संपादक थे। उन्होंने इस पत्र के द्वारा निरंतर ३२ वर्ष तक हिंदी की सेवा की। काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा आयोजित हिंदी शब्दसागर के संपादन में भी उन्होंने बाबू श्याम सुंदर दासतथा शुक्ल जी के साथ कार्य किया।
उनका जन्म प्रयाग के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। भट्ट जी की माता अपने पति की अपेक्षा अधिक पढ़ी-लिखी और विदुषी थीं। उनका प्रभाव बालकृष्ण भट्ट जी पर अधिक पड़ा। भट्ट जी मिशन स्कूल में पढ़ते थे। वहाँ के प्रधानाचार्य एक ईसाई पादरी थे। उनसे वाद-विवाद हो जाने के कारण इन्होंने मिशन स्कूल जाना बंद कर दिया। इस प्रकार वह घर पर रह कर ही संस्कृत का अध्ययन करने लगे। वे अपने सिद्धान्तों एवं जीवन-मूल्यों के इतने दृढ़ प्रतिपादक थे कि कालान्तर में इन्हें अपनी धार्मिक मान्यताओं के कारण मिशन स्कूल तथा कायस्थ पाठशाला के संस्कृत अध्यापक के पद से त्याग-पत्र देना पड़ा था। जीविकोपार्जन के लिए उन्होंने कुछ समय तक व्यापार भी किया परन्तु उसमें इनकी अधिक रुचि न होने के कारण सफलता नहीं मिल सकी। आपकी अभिरुचि आरंभ से ही साहित्य सेवा में थी। अत: सेवा-वृत्ति को तिलांजलि देकर वे यावज्जीवन हिन्दी साहित्य की सेवा ही करते रहे।

कार्यक्षेत्र

भट्ट जी एक अच्छे और सफल पत्रकार भी थे। हिन्दी प्रचार के लिए उन्होंने संवत्‌ 1933 में प्रयाग में हिन्दीवर्द्धिनी नामक सभा की स्थापना की। उसकी ओर से एक हिन्दी मासिक पत्र का प्रकाशन भी कियाजिसका नाम था "हिन्दी प्रदीप"। वह बत्तीस वर्ष तक इसके संपादक रहे और इसे नियमित रूप से भली-भाँति चलाते रहे। हिन्दी प्रदीप के अतिरिक्त बालकृष्ण भट्ट जी ने दो-तीन अन्य पत्रिकाओं का संपादन भी किया। भट्ट जी भारतेन्दु युग के प्रतिष्ठित निबंधकार थे। अपने निबंधों द्वारा हिन्दी की सेवा करने के लिए उनका नाम सदैव अग्रगण्य रहेगा। उनके निबन्ध अधिकतर हिन्दी प्रदीप में प्रकाशित होते थे। उनके निबंध सदा मौलिक और भावना पूर्ण होते थे। वह इतने व्यस्त रहते थे कि उन्हें पुस्तकें लिखने के लिए अवकाश ही नहीं मिलता था। अत्यन्त व्यस्त समय होते हुए भी उन्होंने "सौ अजान एक सुजान", "रेल का विकट खेल", "नूतन ब्रह्मचारी", "बाल विवाह" तथा "भाग्य की परख" आदि छोटी-मोटी दस-बारह पुस्तकें लिखीं। वैसे आपने निबंधों के अतिरिक्त कुछ नाटककहानियाँ और उपन्यास भी लिखे हैं।

प्रमुख कृतियाँ

भट्ट जी ने हिंदी साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों में लिखा। उन्हें मूलरूप से निबंध लेखक के रूप में जाना जाता है लेकिन उन्होंने दो उपन्यास
·         निबंध संग्रह साहित्य सुमन और भट्ट निबंधावली
·         उपन्यास नूतन ब्रह्मचारी तथा सौ अजान एक सुजान
·         मौलिक नाटक दमयंतीस्वयंवरबाल-विवाहचंद्रसेनरेल का विकट खेलआदि।
·         अनुवाद भट्ट जी ने बंगला तथा संस्कृत के नाटकों के अनुवाद भी किए जिनमें वेणीसंहारमृच्छकटिकपद्मावती आदि प्रमुख हैं।

भाषा

भाषा की दृष्टि से अपने समय के लेखकों में भट्ट जी का स्थान बहुत ऊँचा है। उन्होंने अपनी रचनाओं में यथाशक्ति शुद्ध हिंदी का प्रयोग किया। भावों के अनुकूल शब्दों का चुनाव करने में भट्ट जी बड़े कुशल थे। कहावतों और मुहावरों का प्रयोग भी उन्होंने सुंदर ढंग से किया है। भट्ट जी की भाषा में जहाँ तहाँ पूर्वीपन की झलक मिलती है। जैसे- समझा-बुझा के स्थान पर समझाय-बुझाय लिखा गया है। बालकृष्ण भट्ट की भाषा को दो कोटियों में रखा जा सकता है। प्रथम कोटि की भाषा तत्सम शब्दों से युक्त है। द्वितीय कोटि में आने वाली भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ-साथ तत्कालीन उर्दूअरबीफारसी तथा ऑंग्ल भाषीय शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। वह हिन्दी की परिधि का विस्तार करना चाहते थेइसलिए उन्होंने भाषा को विषय एवं प्रसंग के अनुसार प्रचलित हिन्दीतर शब्दों से भी समन्वित किया है। आपकी भाषा जीवंत तथा चित्ताकर्षक है। इसमें यत्र-तत्र पूर्वी बोली के प्रयोगों के साथ-साथ मुहावरों का प्रयोग भी किया गया हैजिससे भाषा अत्यन्त रोचक और प्रवाहमयी बन गई है।

वर्ण्य विषय

भट्ट जी ने जहाँ आँखकाननाकबातचीत जैसे साधारण विषयों पर लेख लिखे हैंवहाँ आत्मनिर्भरताचारु चरित्र जैसे गंभीर विषयों पर भी लेखनी चलाई है। साहित्यिक और सामाजिक विषय भी भट्ट जी से अछूते नहीं बचे। 'चंद्रोदयउनके साहित्यिक निबंधों में से है। समाज की कुरीतियों को दूर करने के लिए उन्होंने सामाजिक निबंधों की रचना की। भट्ट जी के निबंधों में सुरुचि-संपन्नताकल्पनाबहुवर्णन शीलता के साथ-साथ हास्य व्यंग्य के भी दर्शन होते हैं।

शैली

भट्ट जी की लेखन - शैली को भी दो कोटियों में रखा जा सकता है। प्रथम कोटि की शैली को परिचयात्मक शैली कहा जा सकता है। इस शैली में उन्होंने कहानियाँ और उपन्यास लिखे हैं। द्वितीय कोटि में आने वाली शैली गूढ़ और गंभीर है। इस शैली में भट्ट जी को अधिक नैपुण्य प्राप्त है। आपने "आत्म-निर्भरता" तथा "कल्पना" जैसे गम्भीर विषयों के अतिरिक्त, "आँख", "नाक"तथा "कान"आदि अति सामान्य विषयों पर भी सुन्दर निबंध लिखे हैं। आपके निबंधों में विचारों की गहनताविषय की विस्तृत विवेचनागम्भीर चिन्तन के साथ एक अनूठापन भी है। यत्र-तत्र व्यंग्य एवं विनोद उनकी शैली को मनोरंजक बना देता है। उन्होंने हास्य आधारित लेख भी लिखे हैंजो अत्यन्त शिक्षादायक हैं। भट्ट जी का गद्य गद्य न होकर गद्यकाव्य सा प्रतीत होता है। वस्तुत: आधुनिक कविता में पद्यात्मक शैली में गद्य लिखने की परंपरा का सूत्रपात श्री बालकृष्ण भट्ट जी ने ही किया था। उन्हें
·         १. वर्णनात्मक शैली- वर्णनात्मक शैली में भट्ट जी ने व्यावहारिक तथा सामाजिक विषयों पर निबंध लिखे हैं। जन साधारण के लिए भट्ट जी ने इसी शैली को अपनाया। उनके उपन्यास की शैली भी यही हैकिंतु इसे उनकी प्रतिनिधि शैली नहीं कहा जा सकता।
इस शैली की भाषा सरल और मुहावरेदार है। वाक्य कहीं छोटे और कहीं बड़े हैं।
·         २. विचारात्मक शैली- भट्ट जी द्वारा गंभीर विषयों पर लिखे गए निबंध इसी शैली के अंतर्गत आते हैं। तर्क और विश्वासज्ञान और भक्तिसंभाषण आदि निबंध विचारात्मक शैली के उदाहरण हैं।
इस शैली की भाषा में संस्कृत के शब्दों की अधिकता है।
·         ३. भावात्मक शैली- इस शैली का प्रयोग भट्ट जी ने साहित्यिक निबंधों में किया है। इसे भट्ट जी की प्रतिनिधि शैली कहा जा सकता है।
इस शैली में शुद्ध हिंदी का प्रयोग हुआ है। भाषा प्रवाहमयीसंयत और भावानुकूल है। इस शैली में उपमारूपकउत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग भी हुआ है। अलंकारों के प्रयोग से भाषा में विशेष सौंदर्य आ गया है। भावों और विचार के साथ कल्पना का भी सुंदर समन्वय हुआ। इसमें गद्य काव्य जैसा आनंद होता है। चंद्रोदय निबंध का एक अंश देखिए- यह गोल-गोल प्रकाश का पिंड देख भाँति-भाँति की कल्पनाएँ मन में उदय होती है कि क्या यह निशा अभिसारिका के मुख देखने की आरसी है या उसके कान का कुंडल अथवा फूल है यह रजनी रमणी के ललाट पर दुक्के का सफ़ेद तिलक है।
·         ४. व्यंग्यात्मक शैली- इस शैली में हास्य और व्यंग्य की प्रधानता है। विषय के अनुसार कहीं व्यंग्य अत्यंत मार्मिक और तीखा हो गया है।
इस शैली की भाषा में उर्दू शब्दों की अधिकता है और वाक्य छोटे-छोटे हैं।

साहित्य सेवा और स्थान

भारतेंदु काल के निबंध-लेखकों में भट्ट जी का सर्वोच्च स्थान है। उन्होंने पत्रनाटककाव्यनिबंधलेखकउपन्यासकार अनुवादक विभिन्न रूपों में हिंदी की सेवा की और उसे धनी बनाया।
साहित्य की दृष्टि से भट्ट जी के निबंध अत्यंत उच्चकोटि के हैं। इस दिशा में उनकी तुलना अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध निबंधकार चार्ल्स लैंब से की जा सकती है। गद्य काव्य की रचना भी सर्वप्रथम भट्ट जी ने ही प्रारंभ की। इनसे पूर्वक हिंदी में गद्य काव्य का नितांत अभाव था।

विद्यानिवास मिश्र


विद्या निवास मिश्र (28 जनवरी 1926 - 14 फ़रवरी 2005) संस्कृत के प्रकांड विद्वानजाने-माने भाषाविद्हिन्दी साहित्यकार और सफल सम्पादक (नवभारत टाइम्स) थे। उन्हें सन १९९९ में भारत सरकार ने साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया था। ललित निबंध परम्परा में ये आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी और कुबेरनाथ राय के साथ मिलकर एक त्रयी रचते है। पं॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाद अगर कोई हिन्दी साहित्यकार ललित निबंधों को वांछित ऊँचाइयों पर ले गया तो हिन्दी जगत में डॉ॰ विद्यानिवास मिश्र का ही जिक्र होता है।

जीवनी

पं. विद्यानिवास मिश्र का जन्म 28 जनवरी 1925 को उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले के पकडडीहा गाँव में हुआ था। वाराणसी और गोरखपुर में शिक्षा प्राप्त करने वाले श्री मिश्र ने गोरखपुर विश्वविद्यालय से वर्ष 1960-61 में पाणिनी की व्याकरण पर डॉक्टरेट की उपाधि अर्जित की थी।
प्रो॰ मिश्र जी हिन्‍दी के मूर्धन्‍य साहित्‍यकार थे। आपकी विद्वता से हिन्‍दी जगत का कोना-कोना परिचित है। उन्होंने अमेरिका के बर्कले विश्वविद्यालय में भी शोध कार्य किया था तथा वर्ष 1967-68 में वाशिंगटन विश्वविद्यालय में अध्येता रहे थे। म.प्र. में भी सेवारत रहे कुछ समय के लिए। मध्यप्रदेश में सूचना विभाग में कार्यरत रहने के बाद वे अध्यापन के क्षेत्र में आ गए। वे 1968 से 1977 तक वाराणसी के सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में अध्यापक रहे। कुछ वर्ष बाद वे इसी विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। उनकी उपलब्धियों की लंबी शृंखला है। लेकिन वे हमेशा अपनी कोमल भावाभिव्यक्ति के कारण सराहे गए हैं। उनके ललित निबंधों की महक साहित्य- जगत में सदैव बनी रहेगी।
गोरखपुर विश्‍वविद्यालय ने पाणिनीय व्‍याकरण की विश्‍लेषण पद्धतिपर आपको डॉक्‍टरेट की उपाधि प्रदान की। लगभग दस वर्षों तक हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलनरेडियोविन्‍ध्‍य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश के सूचना विभागों में नौकरी के बाद आप गोरखपुर विश्‍वविद्यालय में प्राध्‍यापक हुए। कुछ समय के लिए आप अमेरिका गयेवहाँ कैलीफोर्निया विश्‍वविद्यालय में हिन्‍दी साहित्‍य एवं तुलनात्‍मक भाषा विज्ञान का अध्‍यापन किया एवं वाशिंगटन विश्‍वविद्यालय में हिन्‍दी साहित्‍य का अध्‍यापन किया। आपने वाणरासेय संस्‍कृत विश्‍वविद्यालयमें भाषा विज्ञान एवं आधुनिक भाषा विज्ञान के आचार्य एवं अध्‍यक्ष पद पर भी कार्य किया। राष्‍ट्र ने आपकी साहित्‍यिक सफलताओं को तरहीज देते हुए सासंद नियुक्‍त किया। साथ ही देश ने उनकी सफलताओं और त्‍याग तथा ईमानदारी के लिए पद्य भूषण सम्‍मान से भी विभूषित किया। वर्तमान में प्रो॰ मिश्र भारतीय ज्ञानपीठ के न्‍यासी बोर्ड के सदस्‍य थे और मूर्ति देवी पुरस्‍कार चयन समिति के अध्‍यक्ष सहित ज्ञानपीठ के न्‍यासी बोर्ड के सदस्‍य थे।
प्रो॰ विद्यानिवास मिश्र स्‍वयं को भ्रमरानन्‍द कहते थे और छद्यनाम से आपने अधिक लिखा है। आप हिन्‍दी के एक प्रतिष्‍ठित आलोचक एवं ललित निबन्‍ध लेखक हैंसाहित्‍य की इन दोनों ही विधाओं में आपका कोई विकल्‍प नहीं हैं। निबन्‍ध के क्षेत्र में मिश्र जी का योगदान सदैव स्‍वर्णाक्षरों में अंकित किया जाएगा।
प्रो॰ विद्यानिवास मिश्र के ललित निबन्‍धों की शुरूवात सन्‌ 1956 ई0 से होती है। परन्‍तु आपका पहला निबन्‍ध संग्रह 1976 ई0 में चितवन की छाँहप्रकाश में आया है। आपने हिन्‍दी जगत को ललित निबन्‍ध परम्‍परा से अवगत कराया। निष्‍कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि प्रो॰ मिश्र जी का लेखन आधुनिकता की मार देशकाल की विसंगतियों और मानव की यंत्र का चरम आख्‍यान है जिसमें वे पुरातन से अद्यतन और अद्यतन से पुरातन की बौद्धिक यात्रा करते हैं। ‘‘मिश्र जी के निबन्‍धों का संसार इतना बहुआयामी है कि प्रकृतिलोकतत्‍वबौद्धिकतासर्जनात्‍मकताकल्‍पनाशीलताकाव्‍यात्‍मकतारम्‍य रचनात्‍मकताभाषा की उर्वर सृजनात्‍मकतासम्‍प्रेषणीयता इन निबन्‍धों में एक साथ अन्‍तग्रंर्थित मिलती है।

रचनाएँ

श्री विद्यानिवास मिश्र की हिन्दी और अंग्रेज़ी में दो दर्ज़न से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। इसमें "महाभारत का कव्यार्थ" और "भारतीय भाषादर्शन की पीठिका" प्रमुख हैं। ललित निबंधों में "तुम चंदन हम पानी", "वसंत आ गया" और शोधग्रन्थों में "हिन्दी की शब्द संपदा" चर्चित कृतियां हैं। अन्य ग्रन्थ हैं-
·         स्वरूप-विमर्श (सांस्कृतिक पर्यालोचन से सम्बद्ध निबन्धों का संकलन)
·         कितने मोरचे
·         गांधी का करुण रस
·         चिड़िया रैन बसेरा
·         छितवन की छाँह (निबन्ध संग्रह)
·         तुलसीदास भक्ति प्रबंध का नया उत्कर्ष
·         थोड़ी सी जगह दें (घुसपैठियों पर आधारित निबन्ध)
·         फागुन दुइ रे दिना
·         बसन्त आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं
·         भारतीय संस्कृति के आधार (भारतीय संस्कृति के जीवन पर आधारित पुस्तक)
·         भ्रमरानंद का पचड़ा (श्रेष्ठ कहानी-संग्रह)
·         रहिमन पानी राखिए (जल पर आधारित निबन्ध)
·         राधा माधव रंग रंगी (गीतगोविन्द की सरस व्याख्या)
·         लोक और लोक का स्वर (लोक की भारतीय जीवनसम्मत परिभाषा और उसकी अभिव्यक्ति)
·         वाचिक कविता अवधी (वाचिक अवधी कविताओं का संकलन)
·         वाचिक कविता भोजपुरी
·         व्यक्ति-व्यंजना (विशिष्ट व्यक्त व्यंजक निबन्ध)
·         सपने कहाँ गए (स्वाधीनता संग्राम पर आधारित पुस्तक)
·         साहित्य के सरोकार
·         हिन्दी साहित्य का पुनरावलोकन
·         हिन्दी और हम
·         आज के हिन्दी कवि-अज्ञेय


रामचन्द्र शुक्ल

आचार्य रामचंद्र शुक्ल (४ अक्टूबर१८८४- २ फरवरी१९४१) बीसवीं शताब्दी के हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार हैं। उनका जन्म बस्तीउत्तर प्रदेश में हुआ। उनके द्वारा लिखी गई सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक है हिन्दी साहित्य का इतिहासजिसके द्वारा आज भी काल निर्धारण एवं पाठ्यक्रम निर्माण में सहायता ली जाती है। शुक्ल जी ने इतिहास लेखन में रचनाकार के जीवन और पाठ को समान महत्व दिया। हिंदी में पाठ आधारित वैज्ञानिक आलोचना का सूत्रपात उन्हीं के द्वारा हुआ। हिन्दी निबंध के क्षेत्र में भी शुक्ल जी का महत्वपूर्ण योगदान है। भावमनोविकार संबंधित मनोविश्लेषणात्मक निबंध उनके प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उन्होंने प्रासंगिकता के दृष्टिकोण से साहित्यिक प्रत्ययों एवं रस आदि की पुनर्व्याख्या की।[1]

अनुक्रम

जीवन परिचय

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म सं. १८८४ में बस्ती जिले के अगोना नामक गांव में हुआ था। पिता पं॰ चंद्रबली शुक्ल की नियुक्ति सदर कानूनगो के पद पर मिर्ज़ापुर में हुई तो समस्त परिवार मिर्ज़ापुर में आकर रहने लगा। जिस समय शुक्ल जी की अवस्था नौ वर्ष की थीउनकी माता का देहांत हो गया। मातृ सुख के अभाव के साथ-साथ विमाता से मिलने वाले दुःख ने उनके व्यक्तित्व को अल्पायु में ही परिपक्व बना दिया। अध्ययन के प्रति लग्नशीलता शुक्ल जी में बाल्यकाल से ही थी। किंतु इसके लिए उन्हें अनुकूल वातावरण न मिल सका। किसी तरह उन्होंने एंन्ट्रेंस और एफ. ए. की परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं। उनके पिता की इच्छा थी कि शुक्ल जी कचहरी में जाकर दफ्तर का काम सीखेंकिंतु शुक्ल जी उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे। पिता जी ने उन्हें वकालत पढ़ने के लिए इलाहाबाद भेजा पर उनकी रुचि वकालत में न होकर साहित्य में थी। अतः परिणाम यह हुआ कि वे उसमें अनुत्तीर्ण रहे। शुक्ल जी के पिताजी ने उन्हें नायब तहसीलदारी की जगह दिलाने का प्रयास कियाकिंतु उनकी स्वाभिमानी प्रकृति के कारण यह संभव न हो सका।[2]
शुक्ल जी मिर्ज़ापुर के मिशन स्कूल में अध्यापक हो गए। इसी समय से उनके लेख पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे और धीरे-धीरे उनकी विद्वता का यश चारों ओर फैल गया। उनकी योग्यता से प्रभावित होकर काशीनागरी प्रचारिणी सभा ने उन्हें हिंदी शब्द सागर के सहायक संपादक का कार्य-भार सौंपा,[1] जिसे उन्होंने सफलतापूर्वक पूरा किया। वे नागरी प्रचारिणी पत्रिका के भी संपादक रहे। शुक्ल जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालयमें हिंदी अध्यापन का कार्य भी किया। बाबू श्याम सुंदर दास की मृत्यु के बाद वे वहां हिंदी विभाग के अध्यक्ष नियुक्त हुए। २ फरवरीसन् १९४१ को हृदय की गति रुक जाने से शुक्ल जी का देहांत हो गया। ३० सितंबर२००८ को दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में इनकी जीवनी का विमोचन हुआ।[3]

कृतियाँ

शुक्ल जी की कृतियाँ तीन प्रकार के हैं।
·         मौलिक कृतियाँ तीन प्रकार की हैं--
·         आलोचनात्मक ग्रंथ : सूरतुलसीजायसी पर की गई आलोचनाएंकाव्य में रहस्यवादकाव्य में अभिव्यंजनावादरस मीमांसा आदि शुक्ल जी की आलोचनात्मक रचनाएं हैं।
·         निबंधात्मक ग्रंथ : उनके निबंध चिंतामणि नामक ग्रंथ के दो भागों में संग्रहीत हैं। चिंतामणि के निबन्धों के अतिरिक्त शुक्लजी ने कुछ अन्य निबन्ध भी लिखे हैंजिनमें मित्रताअध्ययन आदि निबन्ध सामान्य विषयों पर लिखे गये निबन्ध हैं। मित्रता निबन्ध जीवनोपयोगी विषय पर लिखा गया उच्चकोटि का निबन्ध है जिसमें शुक्लजी की लेखन शैली गत विशेषतायें झलकती हैं। क्रोध निबन्ध में उन्होंने सामाजिक जीवन मे क्रोध का क्या महत्व हैक्रोधी की मानसिकता-जैसै समबन्धित पेहलुओ का विश्लेश्ण किया है।
·         ऐतिहासिक ग्रंथ : हिंदी साहित्य का इतिहास उनका अनूठा ऐतिहासिक ग्रंथ है।
·         अनूदित कृतियां
शुक्ल जी की अनूदित कृतियां कई हैं। 'शशांकउनका बंगला से अनुवादित उपन्यास है। इसके अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेज़ी से विश्वप्रपंचआदर्श जीवनमेगस्थनीज का भारतवर्षीय वर्णनकल्पना का आनंद आदि रचनाओं का अनुवाद किया।
·         संपादित कृतियां
संपादित ग्रंथों में हिंदी शब्दसागरनागरी प्रचारिणी पत्रिकाभ्रमरगीत सार[4]सूरतुलसी जायसी ग्रंथावली उल्लेखनीय है।

वर्ण्य विषय

शुक्ल जी ने प्रायः साहित्यिक और मनोवैज्ञानिक निबंध लिखे हैं। साहित्यिक निबंधों के ३ भाग किए जा सकते हैं -
सैद्धान्तिक आलोचनात्मक निबंध'कविता क्या है'। 'काव्य में लोक मंगल की साधनावस्था', 'साधारणीकरण और व्यक्ति वैचियवाद', आदि निबंध सैध्दांतिक आलोचना के अंतर्गत आते हैं। आलोचना के साथ-साथ अन्वेषण और गवेषणा करने की प्रवृत्ति भी शुक्ल जी में पर्याप्त मात्रा में है। 'हिंदी साहित्य का इतिहासउनकी इसी प्रवृत्ति का परिणाम है।
व्यवहारिक आलोचनात्मक निबंध- भारतेंदु हरिश्चंद्रतुलसी का भक्ति मार्गमानस की धर्म भूमि आदि निबंध व्यावहारिक आलोचना के अंतर्गत आते हैं।
मनोवैज्ञानिक निबंध- मनोवैज्ञानिक निबंधों में करुणाश्रध्दाभक्तिलज्जाग्लानिक्रोधलोभप्रीति आदि भावों तथा मनोविकारों पर लिखे गए निबंध आते हैं। शुक्ल जी के ये मनोवैज्ञानिक निबंध सर्वथा मौलिक हैं। उनकी भांति किसी भी अन्य लेखक ने उपर्युक्त विषयों पर इतनी प्रौढ़ता के साथ नहीं लिखा। शुक्ल जी के निबंधों में उनकी अभिरुचिविचार धारा अध्ययन आदि का पूरा-पूरा समावेश है। वे लोकादर्श के पक्के समर्थक थे। इस समर्थन की छाप उनकी रचनाओं में सर्वत्र मिलती है।

भाषा

शुक्ल जी के गद्य-साहित्य की भाषा खड़ी बोली है और उसके प्रायः दो रूप मिलते हैं -
·         क्लिष्ट और जटिल
गंभीर विषयों के वर्णन तथा आलोचनात्मक निबंधों के भाषा का क्लिष्ट रूप मिलता है। विषय की गंभीरता के कारण ऐसा होना स्वाभाविक भी है। गंभीर विषयों को व्यक्त करने के लिए जिस संयम और शक्ति की आवश्यकता होती हैवह पूर्णतः विद्यमान है। अतः इस प्रकार को भाषा क्लिष्ट और जटिल होते हुए भी स्पष्ट है। उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता है।
·        सरल और व्यवहारिक
भाषा का सरल और व्यवहारिक रूप शुक्ल जी के मनोवैज्ञानिक निबंधों में मिलता है। इसमें हिंदी के प्रचलित शब्दों को ही अधिक ग्रहण किया गया है यथा स्थान उर्दू और अंग्रेज़ी के अतिप्रचलित शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। भाषा को अधिक सरल और व्यवहारिक बनाने के लिए शुक्ल जी ने तड़क-भड़क अटकल-पच्चू आदि ग्रामीण बोलचाल के शब्दों को भी अपनाया है। तथा नौ दिन चले अढ़ाई कोसजिसकी लाठी उसकी भैंसपेट फूलनाकाटों पर चलना आदि कहावतों व मुहावरों का भी प्रयोग निस्संकोच होकर किया है।
शुक्ल जी का दोनों प्रकार की भाषा पर पूर्ण अधिकार था। वह अत्यंत संभतपरिमार्जितप्रौढ़ और व्याकरण की दृष्टि से पूर्ण निर्दोष है। उसमें रंचमात्र भी शिथिलता नहीं। शब्द मोतियों की भांति वाक्यों के सूत्र में गुंथे हुए हैं। एक भी शब्द निरर्थक नहींप्रत्येक शब्द का अपना पूर्ण महत्व है।

शैली

शुक्ल जी की शैली पर उनके व्यक्तित्व की पूरी-पूरी छाप है। यही कारण है कि प्रत्येक वाक्य पुकार कर कह देता है कि वह उनका है। सामान्य रूप से शुक्ल जी की शैली अत्यंत प्रौढ़ और मौलिक है। उसमें गागर में सागर पूर्ण रूप से विद्यमान है। शुक्ल जी की शैली के मुख्यतः तीन रूप हैं -
आलोचनात्मक शैली
शुक्ल जी ने अपने आलोचनात्मक निबंध इसी शैली में लिखे हैं। इस शैली की भाषा गंभीर है। उनमें संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता है। वाक्य छोटे-छोटेसंयत और मार्मिक हैं। भावों की अभिव्यक्ति इस प्रकार हुई है कि उनको समझने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती।
गवेषणात्मक शैली
इस शैली में शुक्ल जी ने नवीन खोजपूर्ण निबंधों की रचना की है। आलोचनात्मक शैली की अपेक्षा यह शैली अधिक गंभीर और दुरूह है। इसमें भाषा क्लिष्ट है। वाक्य बड़े-बड़े हैं और मुहावरों का नितांत अभाव है।
भावात्मक शैली
शुक्ल जी के मनोवैज्ञानिक निबंध भावात्मक शैली में लिखे गए हैं। यह शैली गद्य-काव्य का सा आनंद देती है। इस शैली की भाषा व्यवहारिक है। भावों की आवश्यकतानुसार छोटे और बड़े दोनों ही प्रकार के वाक्यों को अपनाया गया है। बहुत से वाक्य तो सूक्ति रूप में प्रयुक्त हुए हैं। जैसे - बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है।
इनके अतिरिक्त शुक्ल जी के निबंधों में निगमन पध्दतिअलंकार योजनातुकदार शब्दहास्य-व्यंग्यमूर्तिमत्ता आदि अन्य शैलीगत विशेषताएं भी मिलती हैं।

साहित्य में स्थान

शुक्ल जी हिंदी साहित्य के कीर्ति स्तंभ हैं। हिंदी में वैज्ञानिक आलोचना का सूत्रपात उन्हीं के द्वारा हुआ। तुलसीसूर और जायसी की जैसी निष्पक्षमौलिक और विद्वत्तापूर्ण आलोचनाएं उन्होंने प्रस्तुत की वैसी अभी तक कोई नहीं कर सका। शुक्ल जी की ये आलोचनाएं हिंदी साहित्य की अनुपम विधियां हैं। निबंध के क्षेत्र में शुक्ल जी का स्थान बहुत ऊंचा है। वे श्रेष्ठ और मौलिक निबंधकार थे। हिन्दी में गद्य -शैली के सर्वश्रेष्ठ प्रस्थापकों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का नाम सर्वोपरि है। उन्होंने अपने दृष्टिकोण से भावविभावरस आदि की पुनव्याख्या कीसाथ ही साथ विभिन्न भावों की व्याख्या में उनका पांडित्यमौलिकता और सूक्ष्म पर्यवेक्षण पग -पग पर दिखाई देता है। हिन्दी की सैधांतिक आलोचना को परिचय और सामान्य विवेचन के धरातल से ऊपर उठाकर गंभीर स्वरुप प्रदान करने का श्रेय शुक्ल जी को ही है। "काव्य में रहस्यवाद" निबंध पर इन्हें हिन्दुस्तानी अकादमी से ५०० रुपये का तथा चिंतामणि पर हिन्दी साहित्य सम्मलेनप्रयाग द्वारा १२०० रुपये का मंगला प्रशाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था।[1]

डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल :-

            वासुदेव शरण अग्रवाल (अंग्रेज़ी: Vasudev Sharan Agrawal; जन्म- अगस्त1904ग़ाज़ियाबादउत्तर प्रदेशमृत्यु- 26 जुलाई1966भारत के प्रसिद्ध विद्वानों में से एक थे। वे भारत के इतिहाससंस्कृतिकलासाहित्य और प्राच्य विद्या आदि विषयों के विशेषज्ञ थे। वासुदेव शरण अग्रवाल 'हिन्दी विश्वकोश सम्पादक मण्डलके प्रमुख सदस्य थे। उन्होंने मथुरा संग्रहालय (उत्तर प्रदेशके संग्रहाध्यक्ष के रूप में अपनी सेवाएँ प्रदान की थीं। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'पाणिनिकालीन भारतवर्षमें भारत की संस्कृतिकला और साहित्य आदि पर प्रकाश डाला गया है। उन्हें साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत भी किया गया था।

जन्म

प्राच्य विद्या के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल का जन्म अगस्त, 1904 ई. को ग़ाज़ियाबाद (उत्तर प्रदेशके 'खेड़ानामक गाँव में हुआ था। इनकी छोटी उम्र में ही इनका माँ का देहांत हो गया थाजिस कारण दादी ने ही उनका लालन-पालन किया।

शिक्षा

जिस समय 1920 में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने 'भारतीय इतिहासमें प्रसिद्ध अपना 'असहयोग आंदोलनआंरभ कियाउस समय वासुदेव शरण लखनऊ में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। साथ ही वे एक अन्य विद्वान से संस्कृत का विशेष अध्ययन भी कर रहे थे। आंदोलन के प्रभाव से उन्होंने सरकारी विद्यालय छोड़ दिया और खादी के वस्त्र धारण कर लिए। किंतु जब गाँधीजी ने आंदोलन वापस ले लिया तो उन्होंने फिर औपचारिक शिक्षा आरंभ की और 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालयसे स्नातक बन कर एम.ए और एलएल. बी. की शिक्षा के लिए लखनऊ आ गए। आगे चलकर इसी विश्वविद्यालय से उन्हें पी.एच.डी. और डी.लिट की उपाधियाँ मिलीं।

कृतियाँ

वासुदेव शरण अग्रवाल भारत के इतिहाससंस्कृतिकला एवं साहित्य के विद्वान थे। वे 'साहित्य अकादमीद्वारा पुरस्कृत हिन्दी गद्यकार थे। 'पाणिनिकालीन भारतवर्षनामक उनकी कृति भारतविद्या का अनुपम ग्रन्थ है। इसमें उन्होंने पाणिनिके 'अष्टाध्यायीके माध्यम से भारत की संस्कृति एवं जीवन दर्शन पर प्रकाश डाला है। उन्होंने साहित्य के सहारे भारत का पुन: अनुसंधान किया हैजिसमें उन्होंने वैज्ञानिक एवं तर्कपूर्ण विधि का प्रयोग किया है। उनकी निम्नलिखित कृतियाँ भी बहुत प्रसिद्ध हैं-
1.   "मलिक मुहम्मद जायसी द्मावत"
2.   "हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन"
·         वासुदेव शरण अग्रवाल 'हिन्दी विश्वकोशके सम्पादक-मण्डल के प्रमुख सदस्य थे।

उच्च पदों पर कार्य

वासुदेव शरण अग्रवाल ने उत्तर प्रदेश में 'मथुरा संग्रहालयके क्यूरेटर (संग्रहाध्यक्ष) के रूप में भी अपनी सेवाएँ प्रदान की थीं। वे लखनऊ के प्रांतीय संग्रहालय के भी क्यूरेटर रहे। स्वतंत्रता के बाद दिल्ली में स्थापित 'राष्ट्रीय पुरातत्त्व संग्रहालयकी स्थापना में इनका प्रमुख योगदान था। छह वर्ष तक दिल्ली में रहने के उपरांत वे 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालयके 'भारतीय विद्या संस्थानके प्रमुख बनकर वाराणसी चले गए। 1951 से 1966 तक जीवन पर्यंत वे इस पद पर रहे। पंद्रह वर्षों के इस कार्यकाल में उन्होंने वेदउपनिषदपुराणमहाभारतकाव्य साहित्य सृजित किया। वह अपने क्षेत्र में युग निर्माणकारी माने जाते हैं। फुटकर निबंधों के अतिरिक्त इन विषयों पर उन्होंने हिन्दी में लगभग 36 और अंग्रेजी में 23 ग्रंथों की रचना की थी। इनमें वेद विद्या संबंधी ग्रंथ हैंपुराणों का अध्ययन हैमहाभारत की सांस्कृतिक मीमांसा है, 'मेघदूत', 'कादम्बरी', 'पद्मावतजैसे ग्रंथों की व्याख्या है। अपने इस विशेष योगदान के कारण उनका विद्वानों में और साधारण पाठकों दोनों में बड़ा सम्मान था।
            'डॉ० वासुदेव शरण अग्रवालका जन्म सन् 1904 ई० में लखनऊ के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ था। इनकी छोटी उम्र में ही इनकी माँ का देहांत हो गया थाजिस कारण दादी ने ही उनका लालन-पालन किया।             डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद एम०ए० परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात साहित्य सृजन आरम्भ कर दिया था। इन्होंने वहीं से पुरातत्व विषय में विशेष रूचि ली थी। इसी विषय पर उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में डी०लिट्० की उपाधि प्राप्त की। इन्होंने पी०एच०डी० भी किया। इन्होंने संस्कृतपाली तथा प्राकृत भाषाओं का अध्ययन किया।             लखनऊ और मथुरा के पुरातत्व संग्रहालय के निरीक्षक रहकर डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल ने भारत की प्राचीन संस्कृति का कड़ा अनुसन्धान किया। वे केन्द्रीय सरकार के पुरातत्व विभाग के संचालक रहे। वे काशी विश्व विद्यालय के भारती महा विद्यालय में पुरातत्व एवं प्राचीन इतिहास विभाग के अध्यक्ष और बाद में आचार्य रहे। सन् 1967 ई० में उनका स्वर्गवास हो गया।             डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल की प्रमुख रचनाएं निम्नलिखित हैं-- 'कल्पवृक्ष', 'पृथ्वी पुत्र', 'भारत की एकता', 'माता भूमि', 'उरू ज्योति', 'कला और संस्कृति', 'वाग्धारा', 'वेद विद्या'। उन्होंने 'मलिक मुहम्मद जायसी', 'मेघदूतऔर 'पद्मावत की संजीवनीव्याख्या भी लिखी। उन्होंने सम्पादन और अनुवाद कार्य भी किया।             डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल सच्चे अर्थों में भारतीय संस्कृति के उपासक थे। भारतीय संस्कृति से उनका अगाध प्रेम था। उनके साहित्य में भारत के अतीत के स्वर्णिम पृष्ठों का गान हैवर्तमान के प्रति जागरूकता है और भविष्य के प्रति अटूट आस्था है। पुरातत्व और प्राचीन इतिहास के अतिरिक्त ये काव्य प्रेमी भी थे।  

निधन

वासुदेव शरण अग्रवाल का निधन 26 जुलाई1966 को हुआ।
संकलन प्रा भुरे डी आर 

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