हिन्दी निबन्ध का इतिहास
हिन्दी निबन्ध का जन्म भारतेन्दु-काल में
हुआ। यह नवजागरण का समय था। भारतीयों की दीन-दुखी दशा की ओर लेखकों का बहुत ध्यान
था। पुराने गौरव,
मान, ज्ञान, बल-वैभव को पिफर लाने का प्रयत्न हो रहा था। लेखक अपनी भाषा को भी हर प्रकार
से सम्पन्न और उन्नत करने में लग गए थे, और सबसे बड़ी बात यह थी कि इस काल के लेखक स्वतंत्र विचारों के थे। उनमें
अक्खड़पन और फक्कड़पन भी था। ऐसा युग निबन्ध के बहुत अनुकूल होता है, इसलिए इस युग में जितने अच्छे निबन्ध लिखे
गये उतने अच्छे नाटक,
आलोचना, कहानी आदि नहीं लिखे गए।
०१ भारतेन्दु युग :-
भारतेन्दु काल के वातावरण और परिस्थितियों से
तो आप परिचित ही है। उस युग में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र,
बदरी नारायण
चौधरी ‘प्रेमधन’, बालमुकुन्द गुप्त,
राधाचरण
गोस्वामी जैसे प्रमुख निबन्धकार हुए।
भारतेन्दु जीके निबन्ध भी अनेक विषयों पर
हैं। ‘काश्मीर कुसुम’ ‘उदयपुरोदय’,
‘कालचक्र’, ‘बादशाह दर्पण’-ऐतिहासिक,
‘वैद्यनाथ धाम’, ‘हरिद्वार’, सरयू पार की यात्रा’ :
विवरणात्मक, ‘कंकण स्तोत्र’ : व्यंग्यपूर्ण वर्णनात्मक और ‘नाटक’, ‘वैष्णवता और भारतवर्ष’
विचारात्मक
निबन्ध हैं। भारतेन्दु सबसे अधिक सफल हुए अपने व्यंगात्मक निबन्धों में। ‘लेवी प्राणलेवी’, ‘स्वर्ग में विचार-सभा का अधिवेशन’, ‘पाँचवें पैगम्बर’, ‘अंग्रेज स्त्रोत’, कंकड़ स्तोत्र’ आदि में गजब का हास्य-व्यंग्य है ही ‘सरयू पार की यात्रा’
में भी
भारतेन्दु अपने व्यंग्य का बढ़िया नमूना उपस्थित करते हैं। जैसे : वाह रे बस्ती। झक मारने बसती है। अगर बस्ती
इसी को कहते हैं,
तो उजाड़ किसे
कहेंगे?
इनके निबन्धों की भाषा स्वच्छ और श्लेषपूर्ण
है। कहीं-कहीं तो उर्दू की बढ़िया शैली भी आपने उपस्थित की। भाव और विचार की
दृष्टि से युग की वे सभी विशेषताएं इनमें भी हैं जो भट्ट जी या प्रतापनारायण मिश्र
में हैं।
बालकृष्ण भट्ट अपने समय के सर्वश्रेष्ठ
निबन्धकार कहला सकते हैं। इन्हें हिन्दी का ‘मान्तेन,
कहा जाता है।
भट्ट जी ने सभी प्रकार के निबन्ध लिखे। ‘मेला-ठेला’,
‘वकील’ : वर्णनात्मक, ‘आंसू’,
‘चन्द्रोदय’, ‘सहानुभूति’, ‘आशा माधुर्य’,
‘खटका’ : भावात्मक ‘आत्म-निर्भरता’,
‘कल्पना-शक्ति’, ‘तर्क’, और ‘विश्वास’ : विचारात्मक निबन्ध हैं। ‘खटका’, ‘इंगलिस पढ़े तो बाबू होय’, ‘रोटी तो कमा खाय किसी भांति’, ‘मुछन्दर’,
‘अकल अजीरन राग’ आदि निबन्धों में मस्ती, हास-परिहास, विनोद-व्यंग्य सभी कुछ हैं। ऐसे निबन्धों की भाषा चलती और दैनिक व्यवहार की
है। भट्ट जी की भाषा विषय के अनुकूल और अपने समय में सबसे अधिक मंजी हुई सबल और
प्रभावशाली है। समाज,
व्यक्ति, जीवन, धर्म,
दर्शन, राष्ट्र, हिन्दी :
सभी विषयों पर
आपने लिखा। जन-साहित्य को जन-भाषा में लिखने वालों में प्रतापनारायण मिश्रका नाम
सर्वप्रथम आएगा। इनके व्यक्तित्व और निबन्धों में निराला आकर्षण है। लापरवाही, चुभता व्यंग्य, गुदगुदीभरा विनोद इनकी रचनाओं की विशेषताएँ हैं। इस युग में इतनी चुलबुली भाषा
लिखने वाला और कोई नहीं हुआ। यह ‘ब्राह्मण’ नामक पत्र निकालते थे, जिसमें इनके निबन्ध छपते थे। छोटे-छोटे
विषयों पर इतने बढ़िया,
मनोरंजन और उच्च
उद्देश्य को लेकर किसी लेखक ने नहीं लिखा। ‘नाक’,
‘भौह’, ‘वृद्ध’, ‘दांत’,
‘पेट’, ‘मृच्छ’ आदि विषयों को लेकर आपने अपने निबन्धों में मनोरंजन का सामान भी जुटाया और
देश-प्रेम,
समाज-सुधार, हिन्दी के प्रति प्रेम, स्वाभिमान, आत्म-गौरव का सन्देश भी दिया। इनकी शैली में घरेलू बोलचाल की शब्दावली तथा
पूर्वी बोलियों की कहावतों और मुहावरों का प्रयोग मिलता है। लापरवाही के कारण भाषा
की अशुद्धयाँ रहना साधारण बात है। ‘आत्मीयता’,
‘चिन्ता’, ‘मनोयोग’ इनके विचारात्मक निबन्ध हैं।
प्रेमघन जी अपने निरालेपन के लिए याद किए
जाते हैं। उनका उद्देश्य यह नहीं था कि उनकी बात साधारण समाज तक पहुंचे, उसका मनोरंजन हो या उसके विचारों में
परिवर्तन हो। कलम की करामात दिखाना ही उनका उद्देश्य था। वह स्वाभाविक, प्रवाहमय, सुबोध भाषा नहीं लिखते। बल्कि शब्दों की जड़ाई करते थे। भाषा बनावटी होते हुए
भी उसमें कहीं-कहीं विवेचन की शक्ति पायी जाती है। आप ‘नागरी नीरद’ और ‘आनन्द कादम्बिनी’ नामक पत्र निकालते थे। इन्हीं में उनके
निबन्ध छपा करते थे। इनके शीर्षक उनकी भाषा-शैली को प्रकट करते हैं जैसे सम्पादकीय, सम्पत्ति सीर, हास्य,
हरितांकुर, विज्ञापन और वीर बधूटियां। ‘हमारी मसहरी’ और ‘हमारी दिनचर्या’ जैसे मनोरंजक लेख उन्हीं के लिखे हुए हैं। ‘फागुन’, ‘मित्र’,
‘Rतु-वर्णन उनके
अच्छे निबन्ध हैं।
बावमुकुन्द गुप्त इस युग के अन्तिम और सबसे
अधिक महत्वपूर्ण निबन्धकार थे। ‘शिवशम्भू’ के नाम से ‘भारतमित्र’
में वह ‘शिवसम्भू’ का चिट्ठा’
लिखा करते थे।
हास्य-व्यंग्य के बहाने ‘शिवशम्भू का चिट्ठा नाम से पुस्तक रूप में
प्रकाशित हुए। उनका व्यंग्य शिष्ट और नागरिक होता था। भाषा मिली-जुली
हिन्दी-उर्दू। राधाचरण गोस्वामीको भी इस युग के प्रगतिशील लेखकों में गिना जाएगा। ‘यमपुर की यात्रा’ में उन्होंने धार्मिक अंधविश्वास का बहुत मजाक
उड़ाया है। धार्मिक विचारों के लोग गाय की पूंछ पकड़कर वैतरणी पार करते हैं। इसमें
कुत्ते के पूंछ पकड़कर वैतरणी पार कराई गई है। पहले ऐसी बात सोचना घोर पाप समझा जा
सकता था।
भारतेन्दु-काल के निबन्धकारों की विशेषताएँ
हैं :
निबन्धों के
विषयों की विविधता,
व्याकरण-सम्बन्धी
लापरवाही और अशुद्धयां,
देशज या स्थानीय
शब्दों का प्रयोग,
शैली के विविध
रूप और विचार-स्वतन्त्रता,
समाज-सुधार, देश-भक्ति, पराधीनता के प्रति रोष आत्म-पतन पर खेद, देशोत्थान की कामना,
हिन्दी-सम्मान
की रक्षाभावना,
हिन्दू, पर्व-त्यौहारों के लिए उत्साह और नवीन
विचारों का स्वागत। निबन्ध की एक विशेष शैली भी इस युग की विशेषता है : ‘राजा भोज का सपना’ (शिवप्रसाद सितारे हिन्द), एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न (भारतेन्दु) एक
अनोखा स्वप्न (बालकृष्ण भट्ट), यमपुर की यात्रा (राधाप्रसाद गोस्वामी) : इन रचनाओं में स्वप्न के बहाने राजनैतिक
अधिकार पाने,
समाज सुधार तथा
धर्म-संस्कार का संदेश दिया गया है।
2. द्विवेदी युग :-
भारतेन्दु-युग के बाद द्विवेदी-युग आता है।
भारतेन्दु-युग गद्य-साहित्य के बचपन का समय था। बचपन में लापरवाही, खिलवाड़, विनोद,
मनोरंजन, मुग्धता, चंचलता रहती है। किशोर अवस्था में थोड़ी जिम्मेदारी, समझदारी, शिक्षा,
नियम-पालन, साज-संवार, स्थिरता आ जाती है। इसी अवस्था में प्रतिस्पर्धा की भावना भी जागती है। अन्य
साथियों की शिष्टता,
शील, ज्ञान, आत्मसम्मान आदि को देखकर उनके समान ही हम भी गुण विकसित करना चाहते हैं। यही
बात भारतेन्दु युग के संदर्भ में समझनी चाहिए। भारतेन्दु-काल में साहित्य तो बहुत
लिखा गया था,
पर भाषा की
भूलें साधारण बात थी। निबन्ध के विषय भी साधारण हुआ करते थे। इस युग में इन अभावों
की ओर विशेष ध्यान दिया गया। इस काल के निबन्धों का आरम्भ दो अनुवाद-पुस्तकों से
हुआ। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अंग्रेज लेखक बेकन के निबन्धों का अनुवाद ‘बेकन-विचार-रत्नावली’ के नाम से, गंगा प्रसाद अग्निहोत्री ने मराठी लेखक चिपलूणकर के निबन्धों का अनुवाद
प्रकाशित कराया। लेकिन यहाँ यह बात ध्यान रखने की है कि द्विवेदी-युग का
निबन्ध-साहित्य भारतेन्दु-युग के निबन्ध-साहित्य के समान सम्पन्न नहीं है। महावीर
प्रसाद द्विवेदी,
माधव प्रसाद
मिश्र,
अध्यापक
पूर्णसिंह और चन्द्रधर शर्मा गुलेरी इस युग के प्रमुख निबन्धकार हैं। गोविन्द
नारायण मिश्र,
पद्मसिंह शर्मा
और श्यामसुन्दरदास का नाम दूसरी श्रेणी में लिया जा सकता है।
द्विवेदी-युग में महावीर प्रसाद द्विवेदी का
नाम सबसे पहले आता है। अपने युग के यह आचार्य थे। आचार्य का काम होता है शिक्षा
देना,
ज्ञान-वद्धर्न
कराना,
समाज पर नया
संस्कार डालना और सुधार करना। ये सब काम इन्होंने किये, इसलिए यह आचार्य कहलाए और इनके नाम पर ही इस
काल का नाम द्विवेदी-युग रखा गया। अपने निबन्धों और समालोचनाओं के द्वारा सबसे
मुख्य काम इन्होंने भाषा-सुधार का किया। ‘किंकर्तव्य’
नामक निबन्ध में
यह लिखते हैं :
‘कविता लिखने में
व्याकरण के नियमों की अवहेलना नहीं करनी चाहिए। शुद्ध भाषा का जितना मान होता है, अशुद्ध का नहीं होता। जहां तक सम्भव हो, शब्दों का मूल रूप न बिगाड़ना चाहिए। मुहावरे
का विचार रखना चाहिए। क्रोध क्षमा कीजिए, इत्यादि वाक्य कान को अतिशय पीड़ा पहुंचाते हैं।कृ’ इस अवतरण से इनके भाषा सम्बन्धी विचार स्पष्ट
हो जाते हैं।
द्विवेदी जी ने सभी प्रकार के निबन्ध लिखे। ‘कवि और कविता’ ‘प्रतिभा’,
‘साहित्य की
महत्ता’
इनके विचारात्मक
निबन्ध हैं। ‘लोभ’, ‘क्रोध’
‘संतोष’ : भावात्मक, ‘हंस का क्षीरनीर विवेक’,
‘जापान में
पतंगबाजी’,
‘हजारों वर्ष
पुराने खंडहर’
और ‘प्रताप सुषमा’ : वर्णनात्मक है और ‘हंस-संदेश’ तथा ‘नल का दुस्तर दूत-कार्य’ : विवरणात्मक। यहाँ यह बात ध्यान रखने की है कि
इनके निबन्धों में जानकारी अधिक रहती है, इनकी रचनाओं को पढ़कर ऐसा लगता है कि एक आचार्य शिष्य-मण्डली को पढ़ा रहा है।
माधवप्रसाद मिश्र भारतीय संस्कृति, धर्म-दर्शन, साहित्य कला के सच्चे उपासक थे। इनका अपना व्यक्तित्व था। यदि ये किसी को
भारतीय और प्राचीन साहित्य का गौरव घटाने का प्रयत्न करते हुए पाते थे, तो उनकी आलोचना करते थे। आचार्य द्विवेदी और
श्रीधर पाठक की भी उन्होंने निर्भय आलोचना की थी। इनकी भाषा निर्दोष, साफ-सुथरी, विषयानुकूल,
व्यंग्यात्मक और
प्रभावशाली है। संस्कृत का प्रभाव उन पर स्पष्ट है। इनके लिखे ‘धृति’, ‘क्षमा’,
‘श्री वैष्णव
सम्प्रदाय’,
‘काव्यालोचना’, ‘वेबर’ का भ्रम’ :
विचारात्मक और ‘सब मिट्टी हो गया’ : भावात्मक निबन्ध हैं। भारतेन्दु युग की यह
परम्परा मिश्र जी के निबन्धों के साथ ही समाप्त हो गई।
अध्यापक पूर्णसिंह इस युग के सबसे प्रमुख, भावुक और विचारक निबन्धकार हैं। इससे अधिक
गौरव की बात और क्या होगी कि इन्होंने केवल छः निबन्ध लिखे और पिफर भी अपने समय के
श्रेष्ठ लेखक माने गए। उनमें से प्रमुख हैं ‘मजदूरी और प्रेम’,
‘आचरण की सभ्यता’, और ‘सच्ची वीरता’। अध्यापक जी के निबन्धों में प्रेरणा देने
वाले नए-नए विचार हैं। इनकी भाषा बड़ी ही शक्तिशाली है। उसमें एक खास बाँकपन है
जिससे भाव का प्रकाशन भी निराले ढंग से होता है। विषय भी ऐसे नए कि अब तक किसी को
सूझे ही नहीं। साथ,
ही इनमें
भावुकता का माधुर्य भरा है। वीरता, आचरण,
शारीरिक परिश्रम
का जो महत्व उन्होंने समझाया, उसको ठीक समझा जाए तो आज धर्म का नया रूप सामने आ जाए। समाज में क्रांति हो
जाए,
मनुष्य और सारा
देश उन्नति के शिखर पर पहुंच जाए। ‘‘जब तक जीवन के अरण्य में पादरी, मौलवी,
पंडित और
साधु-संन्यासी,
हल कुदाल और
खुरपा लेकर मजदूरी न करेंगे तब तक उनका आलस्य जाने का नहीं।’’ ‘मजदूरी और प्रेम’ का यह उद्धरण कितना महान् संदेश देता है।
भाषा की लाक्षणिकता इनकी विशेषता है।
चन्द्रधर शर्मा गुलेरी भी स्वतंत्र विचारों
के लिए प्रसिद्ध हैं। निबन्ध इन्होंने भी थोड़े ही लिखे। इनकी रचनाओं में भी जीवन
को उठाने की प्रेरणा और नए विचारों का खजाना मिलता है। संस्कृत के महापण्डित होते
हुए भी पुरानी लकीर पीटने वाले ये नहीं थे। प्राचीन धार्मिक कथाओं की ये वैज्ञानिक
और बुद्धसम्मत व्याख्या करते थे। ‘कछुआ धर्म’
नामक निबंध भी
गम्भीर तर्कपूर्ण,
प्रभावशाली, विचार-प्रधान शैली इनकी विद्वता और
तर्क-कुशलता का सुन्दर उदाहरण है।
गोविन्दनारायण मिश्र का नाम उनकी विचित्र
अलंकारपूर्ण संस्कृत शब्दावली से लदी काव्यमय और बनावटी शैली के लिए लिया जा सकता
है। आपको याद होगा भारतेन्दु-काल में ‘प्रेमघन’
जी भी इसलिए याद
किए जाते हैं।
3. प्रसाद-युग :-
प्रसाद युग हिन्दी साहित्य का स्वर्ण काल है।
क्या कविता,
क्या गद्य दोनों
का विकास इस काल में ऊँचे शिखर पर पहुंचा। कहानी, उपन्यास,
नाटक, निबन्ध, आलोचना सभी का खूब विकास हुआ। वर्णन और विवरण प्रधान निबन्धों की रचना बहुत कम
हुई,
विचारात्मक और
भावात्मक की अधिक। इन दोनों प्रकार के सर्वश्रेष्ठ निबन्ध इसी युग में लिखे गए।
विचारात्मक निबन्धकारों में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और भावात्मक निबन्धकारों में
डॉ. रघुवीर सिंह,
सिरमौर हैं।
गुलाबराय,
वासुदेवशरण अग्रवाल, शांतिप्रिय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी, वियोगी हरि और रायकृष्णदास का नाम भी
उल्लेखनीय है।
गुलाबराय जी के सामने द्विवेदी-युग का सारा
साहित्य-भण्डार था। इनके साहित्य का बहुत कुछ रंग द्विवेदी-युग का रहा। यह
निबन्धकार पहले हैं,
आलोचक बाद में। ‘पिफर निराशा क्यों? ‘मेरी असफलताएं’, ‘अंधेरी कोठरी’
इनके निबन्ध
संग्रह हैं। ‘मेरी असफलताएं’ आत्मपरक या वैयक्तिक व्यंग्यात्मक निबन्धों का संग्रह है। शेषदोनों संग्रहों
में विचारात्मक निबन्ध हैं। अन्तिम संग्रह मनोवैज्ञानिक निबन्धों का है। आपकी भाषा
बड़ी सरल और सुबोध होती है। विचारात्मक और मनोवैज्ञानिक निबन्धों तक में भाषा या
भाव की उलझन नहीं मिलेगी।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का निबन्ध-संग्रह ‘चिन्तामणि’ भारतीय साहित्य में ही नहीं, विश्व-साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। विचारात्मक निबन्धों में शुक्ल
जी के निबन्ध सर्वश्रेष्ठ हैं। इनमें विचारों की बारीकी और गंभीरता, भावों की मनोवैज्ञानिकता, भाषा का गठन और उसकी शक्ति आदि आदर्श हैं। ‘चिन्तामणि’ में ‘क्रोध’, ‘ईर्ष्या’,
‘लोभ और प्रीति’, ‘उत्साह’, ‘श्रद्धाभक्ति’,
‘भय’, ‘करुणा’, ‘घृणा’,
‘लज्जा’ और ‘ग्लानि’
आदि विषयों पर लिखे
निबन्ध मानसिक भावों,
वृत्तियों और
विचारों से सम्बन्ध रखते हैं। ‘कविता क्या है?’ ‘साधारणीकरण और व्यक्तिवैचित्रय’ साहित्यिक व्याख्या और विश्लेषण सम्बन्धी हैं
और ‘तुलसीदास का भक्ति मार्ग’, ‘मानस की धर्म-भूमि’ आदि साहित्य-समीक्षा-सम्बन्धी। ‘मित्रता’ और ‘प्राचीन भारतीयों का पहरावा’ परिचयात्मक वर्णनात्मक निबन्ध हैं।
मनोभावों या चित्तवृत्तियों का विवेचन करते
हुए वे राजनीति,
समाजनीति, धर्म, पारस्परिक व्यवहार आदि पर भी यह अपने मौलिक विचार प्रकट करते चलते हैं। इन
निबन्धों की शैली में लेखक का गहन ज्ञान और गम्भीर व्यक्तित्व प्रकट होता है।
थोड़े शब्दों में बड़ी से बड़ी बात कहने की शक्ति इनमें है। जो उच्च स्थान इनका
आलोचक के रूप में है,
वही निबन्धकार
के रूप में भी है। लोक मंगल की भावना भी इनके निबन्धों की प्रमुख विशेषता है।
छायावाद-युग के कवियों ने भी कुछ रेखाचित्र, संस्मरण और ललित निबन्धों की सम्मिश्रित विधा
में रचनाएं की हैं। ऐसी रचनाओं में महादेवी वर्मा की ये पुस्तकें उल्लेखनीय मानी
जाती हैं :
‘स्मृति की
रेखाएँ’,
‘अतीत के चलचित्र’ तथा ‘शृंखला की कड़ियां’। इनके अतिरिक्त गम्भीर विचारपूर्ण निबन्धों
के लेखक सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’को भी नहीं भुलाया जा सकता। उसके तीन
निबन्ध-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ‘पृथिवी पुत्र’
में आपने एक
स्थान पर कहा है :
‘‘विदेशी विचारों
को मस्तिष्क में भर कर उन्हें अधपके ही बाहर उंडेल देने से किसी साहित्य का लेखक
लोक में चिर जीवन नहीं पा सकता। हिन्दी साहित्यकारों को अपनी खुराक भारत की
सांस्कृतिक और प्राकृतिक भूमि से प्राप्त करना चाहिए।’’ ये भारतीयता के पुजारी और पक्ष-पोषक थे। ‘कला संस्कृति’ में प्राचीन और नवीन भारतीय ऋषियों, दार्शनिकों,
कवियों और
कलाकारों के विषय में निबन्ध हैं। इन्होंने ‘समुद्र-मंथन’,
‘कल्पवृक्ष’ आदि की व्याख्या नवीन वैज्ञानिक और
मनोवैज्ञानिक ढंग से की है। आपके सभी निबन्ध विचारात्मक हैं।
निबन्ध-लेखकों में शांतिप्रिय द्विवेदी को भी
नहीं भुलाया जा सकता। ‘संचारिणी’, ‘सामयिकी’,
‘पदचि”’ ‘युग और साहित्य’, ‘परिव्राजक की प्रथा’ इनकी पुस्तकें हैं। गांधीवादी नैतिकता और
छायावादी भाषा रचनाओं की विशेषता है। ‘धरातल’
में आप अपने को
समाजवाद का हिमायती बताते हैं। इस संग्रह में जीवन की समस्याओं का भौतिक समाधान
खोजा गया है। विचारात्मक और भावात्मक दोनों प्रकार के निबन्ध उन्होंने लिखे हैं।
हिन्दी निबन्ध-साहित्य को इनकी देन है इनके वैयक्तिक निबन्ध। इस क्षेत्र में यह
अद्वितीय है। अपने माता-पिता-बहन के जो चित्र इन्होंने खींचे हैं उनमें करुणा की
नमी है और हृदय को स्पर्श करने वाली सच्चाई। इनके ये अनुपम वैयक्तिक निबन्ध ‘पदचि”’ और ‘परिव्राजक की प्रथा’ में संगृहीत हैं। आप काव्यमय, कोमल-कान्त भाषा का प्रयोग करते हैं।
डॉ. रघुवीर सिंह, माखनलाल चतुर्वेदी, रायकृष्ण दास, वियोगी हरि आदि ने भावात्मक निबन्ध लिखे। रघुवीर सिंह और माखनलाल जी के निबन्ध
काफी बड़े हैं,
शेष दोनों के
बहुत छोटे-छोटे एक डेढ़ पृष्ठ के। इनके निबन्धों की शैली अन्य निबन्धकारों की शैली
से भिन्न हैं :
छोटे-छोटे वाक्य, कहीं खण्डित, कहीं अपूर्ण। आश्चर्य,
शोक, करुणा, प्रेम का आवेश इसमें उमड़ता सा दिखता है, ऐसी रचनाओं को हिन्दी गद्यकाव्य का नाम दिया गया है। हम इन्हें निबन्ध मानते
हैं। गद्य-काव्य के भीतर तो कहानी, नाटक,
उपन्यास, शब्दचित्र, निबन्ध,
आलोचना, सभी कुछ सम्मिलित हैं।
रघुवीर सिंह इतिहास के विद्वान हैं।
मुगलकालीन घटनाओं,
इमारतों, चरित्रों को लेकर इन्होंने ‘अतीत स्मृति’ और ‘शेष स्मृतियाँ’ दो पुस्तकें लिखी। वैसे तो इन निबन्धों में वर्णन और विवरण है, पिफर भी ये भावात्मक हैं। क्योंकि लेखक ने
इनमें वर्णन को महत्व नहीं दिया, इनको देखकर अपने हृदय में उठने वाले भावों को ही प्रकाशित किया है।
माखनलाल जी ने विचार-प्रधान निबन्धों को भी
भावात्मक शैली में लिखा। ‘युग और कला’, ‘साहित्य देवता’,
‘रंगों की बोली’, ‘व्यक्तित्व’ आदि निबन्ध :
कला, साहित्य, चित्रकला और व्यक्तित्व विषयों पर हैं, ये विचारात्मक हो सकते हैं। लेकिन विचार भी प्रभावात्मक ढंग से दिये गये हैं।
लेखक की मुग्धता,
श्रद्धा, करुणा, सहानुभूति ही इसमें प्रकट हुई है।
वियोगी हरि और रायकृष्णदास जी की रचनाओं में
भक्ति,
प्रेम, विस्मय, पश्चाताप,
आत्म-निवेदन, मनोमुग्धता, करुणा,
संवेदना आदि
अनेक भाव और भावना प्रकट हुई हैं। ‘भावना’
और ‘अन्तर्नाद’ वियोगी हरि की और ‘साधना’ रायकृष्ण दास की पुस्तक है। इन सभी निबन्धकारों ने उर्दू शब्दों का भी यथावसर
प्रयोग किया है।
4. प्रसादोत्तर युग :-
प्रसादोत्तर या प्रगतियुग में निबन्ध-साहित्य
ने सबसे अधिक विकास किया। विषयों की संख्या और विविधता की दृष्टि से तो इस युग का
मुकाबला ही नहीं। यह युग उथल-पुथल का युग है। दूसरा विश्वयुद्ध हुआ, समाजवादी विचारों का आगमन हुआ। भारत स्वतंत्र
होकर विभाजित हुआ। प्राचीन साहित्य, संस्कृति और कला की ओर हमारा ध्यान गया। अनेक आर्थिक एवं सामाजिक समस्याएं भी
पैदा हुईं। इन सब बातों की छाया निबन्धों में भी मिलती है। इस युगके चार निबन्धकार
विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। : आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, जैनेन्द्र कुमार भवन्त आनन्द कौशल्यायन तथा यशपाल।
कौसल्यायन जी बौद्धभिक्षु थे और समाजवादी
विचारों का इन पर बहुत प्रभाव था। निबन्ध तो इन्होंने बहुत नहीं लिखे, पर पृथक् विषय की दृष्टि से इनका महत्व है। ‘जो न भूल सका’ इनके संस्मरणात्मक निबन्धों का संग्रह है, जिनमें सामाजिक विषमता,
धार्मिक शोषण, आर्थिक उत्पीड़न के तीखे चित्र हैं। धर्म को
यह शोषण का संगठित साधन बताते हैं और अमीरों के भवनों को गरीबों की हड्डियों की
ईंटों और खून के चूने से बना मानते हैं। जनवादी लेखक होने से इनकी भाषा सरल है।
प्रगतिवादी निबन्ध-साहित्य में यशपाल बेजोड़
हैं। इनके ये निबन्ध-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं : ‘चक्कर क्लब’, ‘न्याय का संघर्ष,
‘गांधीवाद की शव
परीक्षा’,
‘देखा, सोचा, समझा’,
‘बात में बात’, ‘राम-राज्य की कथा’ इन सभी पुस्तकों के नामों से भी पता चलता है
कि ये समाजवाद के समर्थक ही नहीं, प्रचारक भी हैं। पुरानी परम्पराओं, समाज के ढांचे,
धर्म की
बुनियादों पर उन्होंने बड़े जोश के साथ वार किए हैं। इनका विश्वास है कि पुराने
दर्शन और संस्कृति,
मानव की उन्नति
में रोड़े हैं। इसलिए इनका विरोध यह निडर होकर करते हैं। वर्तमान समाज में धन के
गलत बंटवारे के कारण कोई राजा बन गया और कोई गुलाम। वे कहते हैं कि ‘मानव की घृणा’, मानव से मानव की शत्रुता, मानव द्वारा मानव का शोषण और अपमान तभी दूर हो सकेगा, जब सबको अपने परिश्रम का फल मिले, विकास का अवसर प्राप्त हो।’’ सभ्यता, संस्कृति,
कला, साहित्य, समाज सभी के विषय में इन्होंने अपने मौलिक विचार प्रकट किए। विविधता की दृष्टि
से इन्होंने हिन्दी निबन्ध-साहित्य को धनी बताया है।
जैनेन्द्र कुमार शुद्ध रूप से विचारक हैं।
धर्म,
युद्ध, न्याय, राष्ट्रीयता,
दान की बात, दीन की बात, पैसा कमाई और भिखाई,
गांधीवाद का
भविष्य,
रोटी का मोर्चा, संस्कृति की बात, उपवास और लोकतंत्र, दुःख, सत्यं शिवं सुन्दरं,
साहित्य की
सच्चाई,
प्रगतिवाद, जड़चेतन, सम्पादकीय मैटर-इनके इन निबन्धों से विषय की विविधता का तो पता चलता ही है, यह भी पता चलता है कि लेखक समाज, साहित्य, धर्म,
राजनीति, जीवन की यथार्थ उलझनों आदि किसी से भी बेखबर
नहीं। इनके ये निबन्ध-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं : ‘जड़ की बात’, पूर्वोदय’,
‘जैनेन्द्र के
विचार’
‘इतस्ततः’। इनके निबन्धों की विशेषताएं हैं : गांधीवाद, नैतिकता,
संस्कृति-प्रेम, मौलिक विचार, स्वतंत्रता और सबल,
संक्षिप्त गठी
हुई शैली। व्यक्तित्व और शैली को निबन्ध का प्राण मानें, तो जैनेन्द्र जी एक महान लेखक हैं। भाषा सरल, हाट-घाट-बाट की है, लेकिन उसमें अर्थ गजब का मिलेगा। इनकी शैली
के लिए कुछ अवतरण देखिए :
व्यवस्था का दल
कागजी है।
काम उसके
दफ्रतरी है।
मत पता लगने दो
कि नीचे जान है।
दिलेरी डर से
पैदा होती है।
उस नीयत का मुंह
बाहर चाहे न दीखता हो,
पेट में छिपी
उसकी जड़ है जरूर।
निबन्धकारों में राहुल सांकृत्यायन का नाम भी
महत्वपूर्ण है। इनके निबन्ध देश-दशा, राजनीति,
यात्रा-वृत्तान्त
तथा इतिहास को लेकर ही होते हैं। देश-दशा और राजनीति से सम्बन्धित निबन्धों के एक
संग्रह का नाम है :
‘तुम्हारा क्षय’। इस संग्रह के सभी निबन्धों का निष्कर्ष यह
है कि जो रूढ़िवादी है,
जो रास्ता रोककर
खड़े हैं,
उनका क्षय हो।
इनके कुछ संस्मरणात्मक निबन्धों के संग्रह ये हैं बचपन की स्मृतियां, जिनका मैं कृतज्ञ, मेरे असहयोग के साथी, राहुल जी का अपराध आदि। राहुल जी के असली
व्यक्तित्व और निबन्धकार की आत्मा का यदि दर्शन करना हो तो उनका ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ पढ़ना चाहिए।
राहुल जी जैसी मस्ती और जैनेन्द्र कुमार जैसी
शैली की झलक कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ के निबन्धों में मिलती है। इनके निबन्धों के
6 संग्रह हैं :
‘जिन्दगी
मुस्कराई’,
‘आकाश के तारे’, ‘धरती के फूल’, ‘दीप जले’
‘शंख बजे’, ‘माटी हो गयी सोना’, ‘महके आंगन, चहके द्वार’
तथा ‘बूँद-बूँद सागर लहराया’।
आधुनिक निबन्धकारों में विद्यानिवास मिश्र का
नाम उल्लेखनीय है। इन्होंने अधिकतर ललित निबन्ध लिखे हैं। इन निबन्धों में कविता
और पाण्डित्यपूर्ण शास्त्र का आनन्द एक साथ मिलता है। इनके तीन निबन्ध संग्रह
प्रकाशित हो चुके हैं :
(1) छितवन की
छाँह,
(2) कदम की फूली
डाल तथा (3) तुम चन्दन हम पानी। नये निबन्धकारों में प्रभाकर माचवे, नामवर सिंह, हरिशंकर परसाई,
श्रीनिधि
सिद्धान्तालंकार,
शरद जोशी, श्री लाल शुक्ल आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
प्रभाकर माचवेके निबन्धों के संग्रह का नाम है : ‘खरगोश के सींग’ और नामवर सिंहका निबन्ध-संग्रह है : बकलम-खुद’। हरिशंकर परसाई के व्यंग्य-विनोदपूर्ण निबन्धों में मस्ती और जान है। ‘भूत के पाँव’ ‘सदाचार का ताबीज’
और ‘निठल्ले की डायरी’ में उनके व्यंग्य लेख संग्रहीत हैं। विद्या
निवास मिश्र का ‘छितवन की छाह’, ‘तुम चन्दन हम पानी’,
‘आंगन का पंछी’ ‘बनजारामन’ और ‘मेरे राम का मुकुट’ भीग रहा है’, कुबेर नाथ राय का ‘प्रिया-नीलकंठी’, ‘गन्ध मादन’, ‘माया बीज’,
विवेकी राय का ‘आम रास्ता नहीं है’, ‘देवेन्द्र सत्यार्थी का ‘एक युग का प्रतीक’ हरिशंकर परसाई का ‘शिकायत मुझे भी है’ हरीशनवल का ‘बागपत के खरबूजे आदि प्रसिद्ध निबन्ध संकलन हैं।
हिन्दी निबन्ध लेखन की परम्परा अत्यन्त
समृद्ध है लेकिन इधर कुछ वर्षों में इस क्षेत्र में नये लेखकों का आगमन बहुत कम
हुआ है। ललित भावात्मक,
विचारात्मक
निबन्ध लेखन की प्रवृत्ति कम हुई है और जो लिख भी रहे हैं वे पुराने पीढ़ी के ही
लेखक हैं। नये लेखकों की निबन्ध लेखन की ओर से यह उदासीनता अत्यन्त चिन्ताजनक है।
हिन्दी निबन्ध का जन्म भारतेन्दु-काल में
हुआ। यह नवजागरण का समय था। भारतीयों की दीन-दुखी दशा की ओर लेखकों का बहुत ध्यान
था। पुराने गौरव,
मान, ज्ञान, बल-वैभव को पिफर लाने का प्रयत्न हो रहा था। लेखक अपनी भाषा को भी हर प्रकार
से सम्पन्न और उन्नत करने में लग गए थे, और सबसे बड़ी बात यह थी कि इस काल के लेखक स्वतंत्र विचारों के थे। उनमें
अक्खड़पन और फक्कड़पन भी था। ऐसा युग निबन्ध के बहुत अनुकूल होता है, इसलिए इस युग में जितने अच्छे निबन्ध लिखे
गये उतने अच्छे नाटक,
आलोचना, कहानी आदि नहीं लिखे गए।
संकलन प्रा डी आर भुरे
सहायक प्राध्यापक, महात्मा बसवेश्वर महाविद्यालय लातूर
संकलन प्रा डी आर भुरे
सहायक प्राध्यापक, महात्मा बसवेश्वर महाविद्यालय लातूर
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