रविवार, 28 जनवरी 2018

हमने लाहौर देख लिया है–––


हमने लाहौर देख लिया है–––
(जिस लाहौर नई देख्या ओ जम्माइ नइ : असगर वजाहत)

     



पता नहीं आदमी के भीतर कितनी घृणाकट्टरताहिंसालोभ है! पल भर को सोचें कि दुनिया में ऐसा साहित्य न होता जो इन क्रूरताओं का रूपान्तर करुणाउदारताप्रेममें करता हैतो दुनिया की शक्ल कैसी होती ? उसका भावजगत कैसा होता ? हम जानते हैं कि नकारात्मक संवेगों को मिटाया नहीं जा सकतापरन्तु उनका अभ्यन्तर बदला जा सकता है । वाल्मीकि का पहला श्लोक क्रोध से जन्म लेता है लेकिन उसका अभ्यन्तर करुणा या शोक हैवही पाठक में सम्प्रेषित होता है । इसलिए जो रचनाएँ ध्यंवसोत्तर परिवेश मेंस्मरण भूमि या कब्रगाह में जन्म लेती है उनसे पहला सवाल यही पूछना चाहिए कि क्या वे मृत संवेदना को पुनर्जीवित करने की सार्थक कोशिशें हैं ? क्या वे भीतर की नृशंसता का किसी कोमलता में रूपान्तरण करने की बेचैनियाँ हैं ?
 हिन्दुस्तान का विभाजन और सरहदों के आरपार का कत्लेआमदोनों भारत और पाकिस्तान की ऐसी दुखती रगें हैं जो संवेदनशीलसहिष्णु मनों में आज भी टसकती रहती है । यह सच है कि मुट्ठीभर लोग ही दुनिया में घृणा का संक्रमण करते है । परन्तु यह संक्रमण पूरे समाज और देश को प्रदूषित करता हैं एक लेखक का काम इन्हें पहचानना और शेष समाज से अलग करना है । उसे एक कुशल चिकित्सक की तरह संक्रमण से बीमार लोगों का उपचार और तीमारदारी भी करनी होती है ।
  संसार के ऐसे सारे प्रयत्नों की तरहऐसा साहित्यरचना भी जोखिम भरा हैक्योंकि अन्तत: उसे एक बड़े पाठकवर्ग तक उसी अर्थ मेंउसी भाव में प्रेषित होना होता हैजो उसका सम्प्रेष्य है । जोखिम के ऐसे साहित्य से यह प्रश्न भी पूछना चाहिए ।
असगर वजाहत का नाटक जिस लाहौर नइ देख्या ओ जन्म्माइ नइ’  इस स्तर का नाटक है कि उससे सवाल पूछे जा सकते हैं और वह इन सबका सटीक उत्तर भी देता है - देखने पर कमपढ़ने पर ज्यादा है । क्योंकि मंचीय माध्यमों नेउसे उभारा और चमकाया तो बहुतय प्रतिभाशाली निर्देशकों ने उसे जीवित प्रत्यक्षतारोचकता और प्रभावोत्पादकता दी तो पर ऐसे मर्मबिन्दुओं कोचरित्रों के भीतर के द्वन्द्व और मानव हृदय के अबूझ और अद्वितीय रहस्यों को वे पूरी तरह से उजागर नहीं कर सके जो उसका शब्द रूप करता है,जबकि नाट्यभाषा मेंभाषा से अधिक शक्ति और सम्भावना होती है । मेरा मतलब मंचन और नाटक के पाठ की तुलना करना नहीं है लेकिन आगे मैं जो संकेत करूँगा उससे वे लोग समझ जाएँगे जिन्होंने कई बार इसका मंचन देखा है ।
 कैसी मोटी चीजें लोगों के भीतर अनर्थ को जन्म देती है इसका एक उदाहरण यह है कि जब मंचन के लिए यह नाटक पाकिस्तान गया तो पुलिसिया सोच ने इस आधार पर अनुमति नहीं दी कि इसमें एक मौलवी का कत्ल किया गया है । उन्हें क्या मालूम कि इबादत के बाद मौलवी का कत्ल । प्रार्थना सभा के बाद गाँधी की हत्या का एक प्रतिरूप रूपक है! दोनों हत्याओं के बाद क्या यह कोरस नहीं गाया जा सकता :
खाक उड़ाते हैं दिन रात/मीलों फैल गये सइरा/प्यासी धरती जलती है/सूख गये बहते दरिया
  खैरअन्त में नाटक कराँची के गोथे जर्मन सूचना केन्द्र में खेला गया (क्या इसे हिटलर भी छुपकर देख रहा था ?) । लोगों ने हर शो खूब देखाअखबारों ने सराहना की ।
  एक रोचक किस्सा याद आ गयाक्योंकि व्यवस्था की अक्ल हर जगह एकसी होती है । बँगला की लेखिका जया मित्र ने एक मार्मिक जेलडायरी लिखी है - ‘हन्यमान’ (जो मारे जाएँगे) । जया नक्सली आन्दोलन में भाग लेने के कारण बंगाल की जेलों में बन्द थी । जेल महिला बन्दियों की थी । लोग पढ़ने के लिए उन्हें किताबें भेजते थे । एक किताब आयी - तबला तरंगिणी ’ पुलिससूची में ऐसा कोई विषय न था लिहाजा यह उन्हें पढ़ने को नहीं दी गयी । महिला कैदियों ने कहा इस किताब में भड़काने वाली कोई बात नहीं हैयह तबला बजाने की कला पर है । वे इसे लेने पर अड़ गयीं तो रायटर्स बिल्डिंग (सचिवालय) कलकत्ता को लिखा गया । वहाँ से लिखित जवाब आया - ‘तबला अलाउड,तरंगिणी नाट अलाउड’ 
  महाभारत एक सूत्र देता है - भेदमूलो हि विग्रह: झगड़ेफसादजुल्म और टूट का मूल ‘भेद’ है । एक जाति ओर दूसरी जातिएक धर्म और दूसरे धर्म एक रंग और दूसरे रंग––– के कारण मनुष्यमनुष्य में भेदभाव करने से ही विषबीज पनपते है । पाकिस्तान की नींव इसी बुनियाद पर तो रखी गयी थी । जब लाहौर में भारत से शरणार्थी होकर गये सिकन्दर मिर्जा ने रतन की अम्मा से अपने ही घर से निकलने को कहा तो वह अड़ गयी ‘‘मैं तो इत्थे ही रवांगी’’ मिर्जा का तर्क सुनिये - ‘‘भई आप बात तो समझिये कि अब यहाँ पाकिस्तान में कोई हिन्दू नहीं रह सकता ।’’ आप देखें कि यह ‘भेद’ कैसा काम कर रहा है ?एलॉटेड भर कब्जे और पारम्परिक अधिकार का द्वन्द्व नहीं है । इस पूरे पारिवारिक संवाद में एक अद्भुत द्वन्द्व है । सच में जानते हुए भी उससे इनकारसहानुभूति के बावजूद स्वार्थ का अन्तर्द्वन्द्व मंचन इसे न उभार सके तो दृश्यकाव्य को क्या सत्ता ? लेखक जानता है कि आये हुए परिवार की क्या पीड़ा और समस्या है ? वह यह भी जानता है कि आपने मकान से निकलने के फरमान की पीड़ा के बावजूदएक परिवार की नयी बस्ती का वृद्धा के लिए क्या अर्थ है ? एक उजड़े हुए जीवन का दूसरे रास्ते से गृहप्रवेश कैसा सुकून देता है ? ‘तन्नो’ का ‘दादी दादी’ पुकारना कैसे सम्बन्ध को बदल देता है ?
  जिस ‘भेद’ शब्द की ऊपर चर्चा की गयी हैउस छोटीसी इकाई को आप खोलेंगे तो उसके भीतर से विकराल नरक उछलकर आ जाएगा - घृणाहिंसाक्रूरताभयलोभछलकपटसंकीर्णता और जाने क्याक्या! सीमाओं के आरपार क्या यह सब नहीं हुआ है ? और क्या दोनों देशों में इसके अवशेष मौजूद नहीं हे ? नाटक में पहलवानअनवारसिराजरजा वे ही तो हैं!

लेखक ने पाकिस्तान के लाहौर की विना शोत्तर वीरानी को नाटक की कथाभूमि बनाया है । यहाँ संहार के तमाम खण्डहर मौजूद हैं । लाहौर जहाँ कुछ ही समय पहले हिन्दूमुसलमानों का मिलाजुला हराभरा संसार थाव्यापारव्यवसाय फलफूल रहा थाहोली और ईद साथसाथ मनाये जाते थेश्मशान और कब्रिस्तान दोनों के लिए जगहें थींमन्दिर की घण्टियाँ और अजान की आवाजें साथ साथ गूँजती थींवहाँ अब एक इकहरीवीरानउदास दुनिया बची है । हलचलों का चरित्र बदल गया है । लेखक ने बहुत अच्छा किया कि कत्लेआम का कोई फ्लैशबैक नहीं दिया । क्योंकि ऐसे इतिहास की विस्मृति ही सबसे बड़ा उपचार होती है । रचना के काम भर की वीरानीवेदना और अवशेष अपनी कथा खुद कह देते हैंयही तो भाषा की शक्ति है । नाटक केवल संकेत देता है कि ध्वस्त जीवन को नए सिरे से जीने के लिए कितना स्मरण और कितना विस्मरण चाहिए । ऐसे में सवाल तो यही है कि क्या किया जाये कि बची हुईभीतर दबी हुई इन्सानियत फिर से जाग उठे ।
  असल में जो बहुसंख्यक लोग इतने बड़े हादसे को देखकर सन्न रह गये थेस्तब्ध थेवे धीरेधीरे किस उपाय से हरकत में आ जायें! लेखक ने इसके लिए ‘रतन की माँ’ को रचा है और उसके भीतर जो दो तत्त्व डाले हैं - वे हैं - सहिष्णुता और सेवा । वह मिर्जा के परिवार से कहती है कि तुम भी रहोय इतना ही नहींवह जिस स्नेह और सहयोग की मिसाल पेश करती है । उसकी शुरुआत घर में रात को ‘दर्द’ की कोई आवाज’ को लेकर होती है । सुबह जब तन्नो आवाज’ लगाती है - ‘दादीदादी माँ - सुनिये दादी माँ तो वृद्धा ऊपर से उसे असीसतें उतारती हैं ‘‘आयी बेटी तू जुग जुग जीवें । (आते हुए) मैं जद वी तेरी आवाज’ सुनदी आं––– मनूँ लगता हय मैं जिन्दा हाँ–––’’ वह उसकी माँ की तबीयत के बारे में पूछती हूँ और फिर यह बारीकसी कोमल बात - ‘‘कल रात किस दे कन विच दर्द हो रिआ सी’’ तो वह बताती है अम्मा के ही कान में था । इस पर वह कहती है : ‘‘ताँ फिर मेरे तोंदवा लै लैंदी–––एक छोटेमोटे इलाज ते मैं खुद कर लेंदी हाँ ।’’ अब बात आती है उस पड़ोसी की जो नया आया है । तन्नों कहती है : ‘‘दादी पड़ोस के मकान में हिदायत हुसैन साहब हैं न ’’ रतन की माँ : ‘‘केणे मकान विचगजाधर वाले मकान विच ?’’ तन्नो : जी हाँ - उनकी बेगम को एक टोकरी कोयलों की जरूरत है । कल वापस कर देंगी–––आप कहें तो–––’’ रतन की माँ : (बात काटकर) लै भला ऐ वी पूछन दी गल है! इक टोकरी नहींदो टोकरी दे देवो ’’ -यह पूरा संवाद असगर ने कितनी खूबी से लिखा है! हमीदा बेगम के दर्द से लगाकर पड़ोसी को एक टोकरी की बजाए दो टोकरी देने तक । इसके भीतर भी यह कोई पूछने की बात है में कैसी पारिवारिक आत्मीयता ? 11–12 साल की नयी आयी लड़की द्वारा पड़ोसी की पहचान ‘हिदायत हुसैन’ के रूप मेंसाथ में लखनवी तहजीब ‘‘साहब’’ लगानाय और रतन की माँ की पहचान ‘गजाधर के मकान रूप में और फिर सहायता की पहल । इसी बीच हमीदा बेगम का कहना ‘आदाब बुआ ।’ पर रतन की माँ की एक प्यारी सी झिड़की ‘‘बेटी–––तू मेरी पुत्तर दे बराबर है––– माँ जी बुलाया कर मैनूँ ’’ इस पर तुरन्त भूल सुधार : ‘‘बैठिए माँजी’’ –––नये सम्बन्ध कायम हो रहे हैंपुराने सम्बन्धों को भूलने की कोशिशें हो रही हैं । विस्थापन के बाद पुनर्स्थापनयह इतिहास के विरुद्ध मनुष्य की रचनात्मक पहल है । मिर्जा के परिवार से कम बड़ा विस्थापन ‘रतन की माँ का नहीं है । मिर्जा का तो परिवार सहित देशान्तर हुआ हैपरन्तु इस वृद्धा का अदृश्य विस्थापन हृदय के नये ट्रान्सप्लाण्ट की तरह है ।
  इस छोटेसे संवाद के जरियेमैं समझता हूँ कि नाटक में जैसा संवेदनशील बारीक काम हुआ है उसकी झलक मिल सकती हैं भीतरभीतर यह सौहार्द्र है पर मिर्जा और घर का बड़ा लड़का जावेद बुढ़िया को बेदखल करना चाहते हैंघर से ही नहींजिन्दगी से भी । जावेद अपराधकर्मी पहलवान से बात कर चुका हैबुढ़िया को मौत के घाट उतारने का निश्चय हो चुका हैपरन्तु जब मिर्जा की बीबी हमीदा बेगम से मिर्जा बात करते है और वह स्त्री सुलभ सारे इन्कारों को विफल होते देखी है तो कहती है : ‘‘नहीं–––नहीं आपको मेरी कसम–––ये न कीजिए ।’’ –––‘‘मैं तो हरगिज इसके लिए तैयार नहीं हूँ’–––नहीं–––नहीं–––तुम्हें बच्चों की कसम ये मत करवाना ।’’ इस संवाद में मिर्जा के वे सारे तर्क हैं जो आमतौर पर घृणा और भय का विस्तार करते हैं । अन्तत वही होता है जो हमीदा बेगम चाहती है । मिर्जा का दिल भी नम होता है और पहले नियति मानकर इसे सहने और बाद में उसे जीवन का सहजस्वाभाविक हिस्सा मानने तक वे मनुष्यता की यात्रा करते हैं बुढ़िया का रोज रावीस्नानपूजा वगैरह पहलवान और उस जैसे लोगों को बेहद चुभती है । इधर रतन की माँ इस नयी बस्ती में सेवा के जरिये अपनी अनिवार्य जगह बना लेती है ।
  दीपावली आती है । रतन की माँ मिर्जा से दीये जलाने और पूजा करने की इजाजत माँगती है । मिर्जा कहते हैं - ‘यह भी केाई पूछने की बात है! खुशी से सब कुछ कीजिये जो आप करती हैं’’  इस कथन में वृद्धा के कोयला देने की इजाजत माँगने वाले कथन की पुनरावृत्ति है उसने भी तन्नो से कहा था - ‘‘लै भला ए वी पूछने दी गल है ’’ इस वाक्य की पुनरावृत्ति से आत्मीयता और पारिवारिकता के दो तरफा सम्बन्धों के दृढ़ होने की अनकहे सूचना मिलती है ।
  अब यह ऐसा घर हो गया है जहाँ नीचे की मंजिल में ईद मनायी जाती हैइबादत होती है और ऊपर की मंजिल मे दीये जलाये जाते हैंपूजा होती हैं जैसा अक्सर हिन्दुस्तान में देखा जाता है ।
  यह बात पहलवान और कठमुल्ला लोगों की आँखों में चुभती है । वैसे भी बुढ़िया की सुबह रावी स्नानपूजा वगेरह उन्हें कुफ्र लगता है । यह नजारा तो उन्हें दीनोईमान के खिलाफ और बगावती जैसा लगता है ।
  रतन की माँ की तरह लेखक ने इसमें मौलवी इकरामुद्दीन का चरित्र बनाया है । वे इस्लाम की उदारता और सहृदयता के प्रतीक हैं । जब पहलवान और उसके साथी मिर्जा के घर में चल रहे इस ‘कुफ्र’ की शिकायत मौलवी साहब से करते हैं तो वे उन्हें बताते हैं कि सच्चा इस्लाम क्या है ? पर लगता नहीं कि उन पर कोई असर पड़ता है । एक ओर हमेशा सबके सुखदु:ख में भाग लेने के कारण पूरा मोहल्ला रतन की माँ से प्यार करने लगता हैपर कुछ लोगों की आँखों में वह चुभती है । यह बात रतन की माँ को पता चलती है । वह एक दिन अपनी पेटी उठाकर जाने लगती हैतो मिर्जा का पूरा परिवार घर के एक बुजुर्ग सदस्य की तरह उसे जाने से रोकता है और कुछ लोगों की बातों पर ध्यान न देने की बात करता है । जो हमीद एक दिन वृद्धा को मारने की सुपारी पहलवान को देना चाहता थावही उसकी पेटी उसके कमरे में रखकर आता है ।
  –––एक दिन रतन की माँ का देहान्त हो जाता है । अलीमुद्दीन की चाय की दुकान पर जाकर जावेद बहुत दु:ख से जब यह खबर देता है तब वहाँ बैठे शायर नासिर साहब सकते में आ जाते हैं । सब लोग मिर्जा के घर जुट जाते हैं अब सवाल उठता है आखिरी रस्म काक्योंकि शहर में कोई दूसरा हिन्दू भी नहीं जो बताये कि यह रस्म कैसे हो! शमशान भी नहीं है । यह प्रस्ताव भी आता है कि उसे दफना दिया जाये ।
  तभी मौलवी साहब भी आ जाते हैं । वे एक मार्मिक बात कहते हैं : ‘‘देखिये के मर चुकी हैं । उसकी मय्यत के साथ आप लोग जो सुलूक चाहें कर सकते हैं–––उसे चाहे दफन कीजिये चाहे टुकड़ेटुकड़े कर डालियेचाहे गकरे आबे कर दीजिये–––इसका अब उस पर कोई असर नहीं पड़ेगा––– उसके ईमान पर कोई आँच नहीं आएगीलेकिन आप उसके साथ क्या करते हैंइससे आपके ईमान पर फर्क पड़ सकता है ।’’ काफी सोचविचार के बाद मौलाना कहते हैं - ‘‘देखिये शमशान अगर नहीं रहा तो रावी का किनारा तो है । हम मइरूमा की लाश को रावी के किनारे किसी गैरआबाद और सुनसान जगह ले जाकर सुपुर्द आतिश कर सकते हैं ।’’
  सब लोग रस्म को हिन्दू रीति से करने के लिए अपनेअपने अनुभव से योगदान देते हैं । जब यह सवाल पैदा होता है कि मुर्दे को आग उसका बड़ा लड़का लगाता है और यहाँ तो यह है नहीं! तो समस्या पैदा हो जाती है । नासिर सुझाव देते हैं ‘‘सिकन्दर मिर्जा साहब को वो लड़के के बराबर मानती थी । ये काम इन्हीं को करना चाहिए ।’’ साथ में जानेवाले असली घी और हवन की सामग्री भी तय हो जाती है । यह भी कि मुर्दे के साथ ‘राम नाम सत हैयही तुम्हारी गत है' । कहते हुए जाना है । सब तय होने के बाद तैयारी की हिदायत देकर मौलवी साहब एक घण्टे में आने की बात कहकर चले जाते हैं । सब लोग काम में लग जाते हैं ।
  पहलवान अपने दोस्तों के साथ गुस्से में भरा कोने में बैठा हुआ सब देखसुन रहा था । मौलवी के जाने के बाद उबलते हुए वह दोस्तों के साथ जाता है ।
  अन्तिम दृश्य में राम नाम सत है––– के साथ लोग अर्थी उठाते हैं । रात का वक्त है मौलाना मस्जिद में नमाज पढ़ रहे हैं तभी ढाटा बाँधे एक आदमी घुसता है । मौलाना नमाज पढ़कर जैसे ही मुड़ते हैंवह लैम्प बुझा देता है–––
  दोनों ओर से सिर झुकाये पात्र मोलाना की लाश के पास आते हैं एक करुण गायन के साथ नाटक खत्म होता है ।
  इन दोनों मौतों के जरिये एक ओर लेखक मानवीय प्रेम और पारस्परिक आदर की पराकाष्ठा दिखाता है और दूसरी ओर उस घृणा और क्रूरता की चरम सीमा जिसे हम समाज में पालते या पलने के लिए छोड़ देते हैं जो लोग दूसरे धर्म के लोगों का कत्ल करते हैं वे ही असल में हमारेहमारे धर्म के भी हत्यारे हैं । पहले हम जिन प्रवृत्तियों से खुद न गुजरने के कारण उनकी उपेक्षा कर देते हैं वे दरअसल ऐसी अन्धी और पशु प्रवृत्तियाँ हैंजो अन्तत: न अपना धर्म देखती हैंन ईश्वरन इबादत न धर्मगुरुन भाषा (पहलवान भी रतन की माँ की तरह पंजाबी भाषी है ।) क्योंकि वे मूल रूप से पराई जाति और धर्म का ध्वंस ही नहीं करते । जहाँजहाँ भी धर्म हैईमान हैइन्सानियत है उसका विनाश करते हैं । इस तरह यह शोकान्तकी प्रतीक चरित्रों के माध्यम से एक व्यापक भाबबोध पैदा करती हैं
  मैं समझता हूँ कि जहाँ ढाटा बाँधे व्यक्ति लैम्प बुझाता हैवहीं एक चीख के साथ नाटक खत्म होना था । पर अधिक मुखरता और कारुणिकता के उभार की इच्छा ने नाटक का अन्त इतना स्थूल कर दिया है कि कारुणिकता की सघन प्रभावान्विति और पाठक के मन में वेदना और वीरानी के अनुभव की ध्वनि को नुकसान पहुँचा है । उसी तरह वृद्धा के अन्तिम संस्कार का दृश्य अधिक प्रायोजित हो गया है । उसे छोटा होना था । यद्यपि यह रोचक और नाटकीय है फिर भी यह एक बड़ी समस्या होती है । दूसरों की जीवन प्रणालियों के भेद को स्पेस न देने की संकीर्णता से उपजी । आज भी पाकिस्तान से आये शरणार्थी दो शिकायत करते हैंमन्दिर में पूजा न कर सकने और श्मशान के न होने की । लेखक ने तथ्यात्मक चित्रण कर सम्भवत: निर्देशक के लिए यह जगह छोड़ दी है कि वह देश और मन में दूसरों के प्रति ‘स्पेस’ न होने की समस्या को अपने उपकरणों या अपनी नाट्य भाषा में उभारे । पर अक्सर निर्देशक जब सूक्ष्म को भी स्थूल बनाने पर तुले होते हैंतब स्थूल तो मानो उनके हाथ में आयी एक नकद सम्पत्ति हैक्योंकि सम्भवत: वे समझते हैं कि नाटक तो दृश्यभाषा हैजिसे शब्दों से अधिक स्थूल और प्रत्यक्ष होना पड़ता है । इस नाटक में छोटे दृश्यों का बाहुल्य सम्भवत: अधिक व्यवधान पैदा करता है!
  एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि लाहौर में रह रही वृद्धा पंजाबी भाषी है और लखनऊ से आया मिर्जा परिवार उर्दूहिन्दी भाषी । परन्तु भाषा का यह द्वैत हृदयों में अद्वैत होने में बाधक नहीं है । छोटी लड़की तन्नों तक अपनी हर बात दादी से उर्दू में कहती है और दादी अपनी हर बात पंजाबी में करती हैं ये उम्र के दो छोर हैं पर इसमें कहीं दिक्कत नहीं होती । लेखक ने अपने मित्र की सहायता से जो पंजाबी रची है उसमें भी सांवादिकता है और उर्दूहिन्दी में एक सार्थक सेतु का काम करती है । पात्रों और पाठकोंदर्शकों के लिए ।
  नाटक का हर अंग सार्थक है और भावों के रूपायनउत्कर्ष और सघनता के सारे प्रयोगजिनमें नासिर की गजलें भी हैं नाटक को सशक्त बनाती है ।––– यह एक रचनाकार की सहृदय उपस्थिति है जिसे लेखक ने रेखांकित किया है ।

प्रभाकर श्रोत्रिय : जन्म 1938, जावरा (मप्र–) । वरिष्ठ साहित्यकार और नाटकार । तीन दर्जन से अधिक आलोचनात्मक व सम्पादित पुस्तकें प्रकाशित । ‘साक्षात्कार’, ‘अक्षरा’  ‘वागर्थ’ और ‘नया ज्ञानोदय’ के  के पूर्व सम्पादक । केन्द्रीय साहित्य अकादमी की साधारण सभा और परामर्श मण्डल के सदस्य भी रहे । भरतीय भाषा परिषदकोलकाता व भारतीय ज्ञानपीठनयी दिल्ली के पूर्व निदेशक । सम्पर्क :  +919717266220

संवेद से साभार ...................


सोमवार, 20 नवंबर 2017






कुँवर नारायण का जन्म १९ सितंबर १९२७ को हुआ। नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर कुँवर नारायण अज्ञेय द्वारा संपादित तीसरा सप्तक (१९५९) के प्रमुख कवियों में रहे हैं। कुँवर नारायण को अपनी रचनाशीलता में इतिहास और मिथक के जरिये वर्तमान को देखने के लिए जाना जाता है। कुंवर नारायण का रचना संसार इतना व्यापक एवं जटिल है कि उसको कोई एक नाम देना सम्भव नहीं। यद्यपि कुंवर नारायण की मूल विधा कविता रही है पर इसके अलावा उन्होंने कहानीलेख व समीक्षाओं के साथ-साथ सिनेमारंगमंच एवं अन्य कलाओं पर भी बखूबी लेखनी चलायी है। इसके चलते जहाँ उनके लेखन में सहज संप्रेषणीयता आई वहीं वे प्रयोगधर्मी भी बने रहे। उनकी कविताओं-कहानियों का कई भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है। तनावपत्रिका के लिए उन्होंने कवाफी तथा ब्रोर्खेस की कविताओं का भी अनुवाद किया है। 2009 में कुँवर नारायण को वर्ष 2005 के लिए देश के साहित्य जगत के सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
जीवन परिचय
उन्होने इंटर तक की पढ़ाई विज्ञान विषय से की लेकिन आगे चल कर वे साहित्य के विद्यार्थी बने और १९५१ में लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. किया। वे उत्तर प्रदेश के संगीत नाटक अकादमीके १९७६ से १९७९ तक उप पीठाध्यक्ष रहे और १९७५ से १९७८ तक अज्ञेय द्वारा संपादित मासिक पत्रिका नया प्रतीक के संपादक मंडल के सदस्य भी रहे। पहले माँ और फिर बहन की असामयिक मौत ने उनकी अन्तरात्मा को झकझोर कर रख दिया, पर टूट कर भी जुड़ जाना उन्होंने सीख लिया था। पैतृक रूप में उनका कार का व्यवसाय था, पर इसके साथ उन्होंने साहित्य की दुनिया में भी प्रवेश करना मुनासिब समझा। इसके पीछे वे कारण गिनाते हैं कि साहित्य का धंधा न करना पड़े इसलिए समानान्तर रूप से अपना पैतृक धंधा भी चलाना उचित समझा।[1]
साहित्य यात्रा
एम०एम० करने के ठीक पाँच वर्ष बाद वर्ष १९५६ में २९ वर्ष की आयु में उनका प्रथम काव्य संग्रह चक्रव्यूह नाम से प्रकाशित हुआ। अल्प समय में ही अपनी प्रयोगधर्मिता के चलते उन्होंने पचान स्थापित कर ली और नतीजन अज्ञेय जी ने वर्ष १९५९ में उनकी कविताओं को केदारनाथ सिंह, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और विजयदेव नारायण साही के साथ तीसरा सप्तक में शामिल किया। यहाँ से उन्हें काफी प्रसिद्धि मिली। १९६५ में आत्मजयी जैसे प्रबंध काव्य के प्रकाशन के साथ ही कुंवर नारायण ने असीम संभावनाओं वाले कवि के रूप में पहचान बना ली। फिर तो आकारों के आसपास (कहानी संग्रह-१९७१)परिवेश : हम-तुमअपने सामनेकोई दूसरा नहींइन दिनोंआज और आज से पहले (समीक्षा)मेरे साक्षात्कार और हाल ही में प्रकाशित वाजश्रवा के बहाने सहित उनकी तमाम कृतियाँ आईं।[2]
समालोचना
कुँवर नारायण हमारे दौर के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार हैं। उनकी काव्ययात्रा 'चक्रव्यूह' से शुरू हुई। इसके साथ ही उन्होंने हिन्दी के काव्य पाठकों में एक नई तरह की समझ पैदा की। उनके संग्रह 'परिवेश हम तुम' के माध्यम से मानवीय संबंधों की एक विरल व्याख्या हम सबके सामने आई। उन्होंने अपने प्रबंध 'आत्मजयी' में मृत्यु संबंधी शाश्वत समस्या को कठोपनिषद का माध्यम बनाकर अद्भुत व्याख्या के साथ हमारे सामने रखा। इसमें नचिकेता अपने पिता की आज्ञा, 'मृत्य वे त्वा ददामीति' अर्थात मैं तुम्हें मृत्यु को देता हूँ, को शिरोधार्य करके यम के द्वार पर चला जाता है, जहाँ वह तीन दिन तक भूखा-प्यासा रहकर यमराज के घर लौटने की प्रतीक्षा करता है। उसकी इस साधना से प्रसन्न होकर यमराज उसे तीन वरदान माँगने की अनुमति देते हैं। नचिकेता इनमें से पहला वरदान यह माँगता है कि उसके पिता वाजश्रवा का क्रोध समाप्त हो जाए। नचिकेता के इसी कथन को आधार बनाकर कुँवर नारायणजी की जो कृति 2008 में आई, 'वाजश्रवा के बहाने', उसमें उन्होंने पिता वाजश्रवा के मन में जो उद्वेलन चलता रहा उसे अत्यधिक सात्विक शब्दावली में काव्यबद्ध किया है। इस कृति की विरल विशेषता यह है कि 'अमूर्त'को एक अत्यधिक सूक्ष्म संवेदनात्मक शब्दावली देकर नई उत्साह परख जिजीविषा को वाणी दी है। जहाँ एक ओर आत्मजयी में कुँवरनारायण जी ने मृत्यु जैसे विषय का निर्वचन किया है, वहीं इसके ठीक विपरीत 'वाजश्रवा के बहाने'कृति में अपनी विधायक संवेदना के साथ जीवन के आलोक को रेखांकित किया है। यह कृति आज के इस बर्बर समय में भटकती हुई मानसिकता को न केवल राहत देती है, बल्कि यह प्रेरणा भी देती है कि दो पीढ़ियों के बीच समन्वय बनाए रखने का समझदार ढंग क्या हो सकता है।[3]
प्रकाशित कृतियाँ
कहानी संग्रह - आकारों के आसपास (१९७३)
संकलन - कुंवर नारायण-संसार(चुने हुए लेखों का संग्रह) २००२,कुँवर नारायण उपस्थिति (चुने हुए लेखों का संग्रह)(२००२)कुँवर नारायण चुनी हुई कविताएँ (२००७)कुँवर नारायण- प्रतिनिधि कविताएँ (२००८)
पुरस्कार सम्मान
      कुँवर नारायण को वर्ष 2005 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। छह अक्टूबर को राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने उन्हें देश के सबसे बड़े साहित्यिक सम्मान से सम्मानित किया।
सन्दर्भ :-
 "कुंवर नारायण को ज्ञानपीठ पुरस्कार" (एचटीएम). वेबदुनिया. अभिगमन तिथि: २००९.
 "Dhoni, Bindra and Aishwarya among Padma awardees [धोनी, बिन्द्रा और ऐश्वर्या पद्म पुरस्कारों में]" (अंग्रेज़ी में). टाइम्स ऑफ़ इण्डिया. २५ जनवरी २००९. अभिगमन तिथि: ८ दिसम्बर २०१३.
 "List of Padma awardees 2009 [२००९ में पद्म पुरस्कार पाने वालों की सूची]" (अंग्रेज़ी में). द हिन्दू. २६ जनवरी २००९. अभिगमन तिथि: ८ दिसम्बर २०१३.


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